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ठीक उसी प्रकार श्री आत्मानंदजी म.ने भी सत्य गवेषणामें न जाने कहाँ कहाँ-पंजाबसे आग्रा तक-पैदल पर्यटन किया; व्याकरण-काव्य-कोष-न्यायादिका विशद अध्ययन किया; अनेक विद्वानोंसे-विशेषतः श्रीरत्नचंद्रजी म.से-संपर्क करके विचार विमर्श किया और स्थानकवासी मतको 'मिथ्या' सिद्ध होते ही उसे त्याग दिया साथ ही अन्य भव्यात्माओंको उसकी त्याज्यता समझा कर उनका भी उद्धार किया । एकने राजसी ठाठबाठ-राजसन्मान और राज-पुरोहित जैसा प्रतिष्ठित पद-गृह और परिवारादिका उत्सर्ग किया तो एकने सम्प्रदायगत आदरणीय वात्सल्य, पांडित्य युक्त प्रतिष्ठित सम्मान, प्रिय गुर्वादिकी स्नेह युक्त निश्राको जलांजलि देकर और भावि विघ्नोंका निरादर करके मूर्तिपूजक श्वेताम्बर संवेगी साधु जीवन अपनाया । गुणानुरागः--जब राजपुरोहित श्रीहरिभद्रजीकी राहमें उन्मत्त हाथी दनादन भागता हुआ आ रहा था-लोगोंमें भाग दौड़ मच गयी थी तब ये “हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैन मंदिरे". इस लोकोक्तिमें श्रद्धावान् पंडितजी भी प्राणरक्षाको प्रमुखता देते हुए जैनमंदिरमें ही घूस गये । वहाँ श्री जिनेश्वर देवकी प्रतिमाको देखकर उपहास हेतु श्लोक बनाकर गाने लगे कि- “वपुरेव तवाचष्टे स्पष्ट मिष्टान्न भोजनम्”- वे ही हरिभद्र विवेक-चक्षुके उद्घाटित होते ही, जैन साध्वीजीसे श्रवण किये श्लोकके स्पष्ट अर्थघटन हेतु आचार्यश्रीजीके पास-जैन उपाश्रयमें जाते समय उसी जिनमंदिरमें पुनः प्रवेश करते हैं, तब वह श्रीजिनबिम्बके दर्शन होते ही नतमस्तक होकर गाने लगे- “वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् !"- अतः स्पष्ट है कि अज्ञानवश किये हुए अपराधके लिए भी उन्होंने क्षमाप्रार्थना करके गलती सुधारनेमें संकोचका अनुभव नहीं किया । इतना ही नहीं, जैनाचार्यके गौरववंत पदासीन होनेके पश्चात् भी शिष्य मोहके जालमें फंसकर बौद्धोंके साथ वाद करके उन्हें परास्त करके उनके संहारके लिए उद्यत हुएको, जब गुरु म.सत्पथ प्रदर्शित करते हैं तब भी उनके चरणोमें शिशु सदृश सरलतासे क्षमायाचना करनेमें झिझकते नहीं है । देव-गुरु और धर्मके प्रति भी कैसी गुणानुरागिता । श्री जिनशासनकी प्राप्ति करवानेमें निमित्तभूत महत्तराजीको निरंतर याद करते हुए अपना परिचय 'महत्तरा याकिनी सूनु के रूपमें देनेमें गौरवका अनुभव करते हैं । श्री जिनागमोंके प्रति अपनी सनिष्ठता प्रकट करते हुए लिखते हैं-“हा ! अणाहा कहं हुंता, जइ ण हुंतो जिनागमो !"
वैसे ही पूर्वावस्थाके ढूंढक साधु-मूर्तिपूजाके तीव्र विरोधी श्रीआत्मानंदजी म.सा.भी गुणानुरागिता और गुणग्राहिताके कारण मूर्तिपूजाकी सत् सत्यताका प्रमाण पाते ही मूर्तिपूजाका मंडन करनेमें एवं उस वक्त भावुक भक्तोंके समक्ष स्यंकी पूर्वकी भ्रामक धारणाओंको उद्घाटित करनेमें भी कभी क्षोभित नहीं हुए ।
__ श्रीहरिभद्रजीके पास परम्परागत वैदिक दर्शनका पांडित्य-विरासतमें प्राप्त संपत्ति थी, जबकि श्रीआत्मारामजीकी पैतृक संपत्ति थी क्षात्रतेजयुक्त साहसिकता व पराक्रम एवं आगमिक प्राज्ञताकी प्राप्तिको हेतुभूत थे तीव्रमेधासे किया गया अध्ययन और अनुशीलन । दोनों ही, संविज्ञ मुनि जीवन ग्रहण करनेके पश्चात् अपने पूर्वगत पांडित्य-शास्त्रविशारदता-विद्वत्ताको पुण्यहीन मूोंके मिथ्याभ्रम ही मानने लगे थे क्योंकि दोनों की विचारधारा एकान्तिकताकी कूपमंडूकतासे निकल कर स्याद्वादी समुद्रकी सतह पर नर्तन कर रही थीं । श्रीहरिभद्रजीको जैनधर्मकी अत्युत्कृष्टतम त्रिविध-त्रिविध अहिंसा पालन, अनन्य-विशिष्ट विरतिधर्म, महान विवेकयुक्त-गंभीर रहस्यमय-अध्यात्मसे परिपूर्ण प्रतिक्रमणादि योगानुष्ठान, पंचाचार पालनकी अद्भूत विशिष्टता और उसके पालनमें स्खलना पात्रको योग्य प्रायश्चित्तसे शुद्धिका विस्तृत विश्लेषण; परमात्माका अलौकिक भव्यतम स्वरूप, अष्टकर्मका महाविज्ञान, आत्मिक उत्थानके लिए चौदह गुणस्थानकोंकी श्रेणियाँ, स्याद्वाद-अनेकान्तवादादि अपूर्व आगमिक सिद्धान्तों और उसकी प्ररूपणाके पूर्वापर अविरुद्ध टंकशाली वचन, चारित्रिक एवं आत्मिक पराक्रमी पूर्व महापुरुषोंका गुण-वैभववान इतिहास, अनुपमेय तीर्थधाम-आदिको प्राप्त करके अहोभावपूर्ण धन्यताका अनुभव हो रहा था । तो ढूंढक मतको परित्याग-कर्ता श्रीमद् आत्मारामजी म.सा. द्रव्य और भावभक्ति युक्त पूजा विधान, परमात्माकी प्रशमरससे शोभित-वीतरागताकी प्रतिमूर्तिके अवलम्बन युक्त सालंबन आत्मध्यान, जिन प्रतिमा और जिनागमोंकी अविच्छिन्न परम्परा और पवित्रता-भव्य प्राचीनता
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