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उदार दिल, शिशु सम सरल, विनम्रः ज्ञानोपासनाकी प्राणवान प्रतिमा और जीवंत-जंगम ज्ञानपीठः जिनशासन प्रभावक-प्रखरवादी-समर्थ टीकाकार-उत्तमोत्तम १४४४ तेजस्वी ग्रन्थरत्नोंके प्रणेताः महत्तरा याकिनी सूनु श्रीमद् हरिभद्र सुरीश्वरजी महाराजा जीवनकी पूर्वावस्थामें चित्रकूट नरेश-'जितारि के मान्य राजपुरोहित थे, जिनका चौदह ब्राह्मण-विद्याओं पर पूर्ण आधिपत्य था । शास्त्र विशारदोंके साथ शास्त्रार्थ करनेकी सदैव तत्परता और किसी भी तत्व-पदार्थकी अनभिज्ञताको दूर करनेकी तीव्र जिज्ञासा-वृत्तिवाले, सत्यके उपासक उस पुराण-पारंगत एवं वेदज्ञ पंडितकी प्रतिज्ञा थी कि, 'स्वयंकी सर्वज्ञ-तुल्य प्रातिभ-बुद्धिके परिघसे बाहर अगर कोई शब्दावली-वाक्य या श्लोकका अर्थ निकल आयें, तब उस प्रतापी प्राज्ञसे उसको जिज्ञासु भावसे समझकर उसका शिष्यत्व स्वीकार करेंगें ।' इस प्रतिज्ञाने ही उन्हें जिनशासनका पल्ला पकड़ा दिया और अत्युत्तमोत्तम आगमशास्त्रोंके अध्येता बनाकर समर्थ साहित्य सर्जनके काबिल बना दिया । वैसे तो जिनशासनमें विभिन्न समयमें होनेवाले 'हरिभद्र'-ऐसे समान अभिधा सूचक आठ आचार्य भगवंतोंका निर्देश मिलता है, लेकिन यहाँ हमें "भवविरह' या 'विरहांक' तखल्लुसके साथ प्रसिद्ध या 'महत्तरा याकिनी सूनु' उपनामवाले हरिभद्र सूरिजी ही अभिप्रेत है । -यथा
“जो इच्छइ भवबिरहं, 'भवविरहं' को न बंदए सुयणो ?" जैनधर्मके पूर्व और उत्तरकालीन इतिहासके सीमास्तंभ-विद्वद्वर्य श्री हरिभद्रजी भट्ट 'पिर्वगुई नामक ब्रह्मपुरीके निवासी पिता-शंकरजी भट्ट और माता-गंगाके अपत्यः विद्याधर कुल-तिलकायमान श्री जिनदत्तसूरि (गच्छनायक श्रीजिनभद्रसूरि)के शासन प्रभावक शिष्यः और हंस परमहंस (अथवा कथावलीके अनुसार जिनभद्र
और वीरभद्र) जैसे उत्तम शिष्योंके गुरु थे । (जीनवकाल-वि.सं ७५७ से ८२७) उन्होंने की हुई गुप्त प्रतिज्ञाके पालनके लिए जैन श्रमणत्व स्वीकार करके स्व-पर कल्याणके अनेक कार्य किये, जिनमें साहित्य सृजनाका योगदान एक विशिष्ट प्रभाव छोड़ जाता है । इस साहित्य सृजनकी पार्श्वभूमिमें बड़ा दर्दनाक, 'अहिंसा परमोधर्म के सार्थक्यको सिद्ध करनेवाला-गुरु द्वारा करुणाई प्रतिबोध-क्षमाके साथ प्रायश्चित प्रदान करनेवाली जैन परिपाटी और सर्व दर्शनोमें जैनदर्शनकी श्रेष्ठताको प्रमाणित करनेवाला-उनके प्रिय शिष्य हंस और परमहंसके बलिदानः बौद्धोंको वादमें जीतकर उनके नाशका संकल्प एवं गुरु श्रीजिनदत्त सूरि म.द्वारा यथावसर-यथोचित सारण-वारणादि करके हरिभद्र सुरीश्वरजी म.की मोहतंद्राको तोड़कर प्रायश्चित्तके रूपमें १४४४ ग्रन्थ सृजनके प्रायश्चित्तको प्रदान करनेवाला वाकया जुड़ा हुआ है । सत्योपासनाके राही:-महापुरुषोमें एक अपूर्व कल्पकत्व होता है, जिसके सहारे वे स्वयंको अनन्तता और सत्यके घनिष्ठ संपर्क में जोड़ सकते हैं । क्षुल्लक तोंमें भी प्रच्छन्न रहे हुए गूढ़ भेदोंको भी वे अनूठी कल्पना शक्तिके बलपर नूतन ढंगसे सोच सकते हैं । सत्यके उपासक और गवेषक-दोनों तेजस्वी रत्न इसी महान गुणके कारण प्रभावक कोटिमें स्वयंको रख सके हैं । सूरि-पुरंदर श्रीहरिभद्रजी और सूरिसम्राट श्रीआत्मानंदजी-दोनों जैनेतर जाति और कुलके वंशज थे-एक थे राजपुरोहित और दूसरे थे ब्रह्म क्षत्रिय-दोनोंके वंशगत कार्यक्षेत्र भिन्न थे, लेकिन सत्योपासना गुणाश्रयी दोनोमें अभिन्नता थी । दोनोंही सत्यके शोधक-सत्यके उपासक-सत्यके संरक्षक थे । सत्यके राहपर सर्वस्व न्यौछावर करनेमें शूरवीर थे। श्रीहरिभद्रजीने जैन साध्वीवर्याके मुखसे पठित गाथा श्रवण की ।
___"चक्की दुगं हरि पणगं, पणगं चक्कीण केसयो चक्की ।
केसव चक्की केसव, दु चक्की केसी च चक्की य ॥ बारबार उच्चरित उस गाथाके मर्मको, एड़ि-चोटीका जोर लगाने पर भी, न समझ सकें । अतः अपनी प्रतिज्ञानुसार उसे समझानेवाले जैन श्रमण गुरुका शिष्यत्व अंगीकार करके सत्योपासनाका ज्वलंत उदाहरण छोड़ गये । (जो बात समझमें न आयें उसे काल्पनिक-गप्प या मिथ्या ठहरा देना अथवा प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित लेकिन केवली-प्ररूपित तत्त्वको अन्य प्रकारके आक्षेपोंसे मढ़ देनेवाले थोथे विद्वानोंके लिए ऐसी सत्योपासना और साहसिकता अनुमोदनीय और अनुकरणीय है ।)
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