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सामर्थ्य से प्रकाशित दिव्य ज्योतिका अंबार । सामान्यतः साहित्य सृजनका विशिष्ट प्रयोजन जन-मनको ज्ञान-विज्ञानके, श्रद्धा-भक्तिके और उत्तम चारित्र्यिक कार्य कलापोंसे लाभान्वित करना होता है, जिसका स्वस्थ-स्पष्ट-संपूर्ण स्वाद हमें आचार्य प्रवरश्रीके साहित्यमें प्राप्त होता है । समतल षड्रस भोजन समान उनके जीवविज्ञान-आत्मविज्ञान-कर्मविज्ञान-पुद्गलादिको अनुलक्षित भौतिकविज्ञान-जड, चेतनादिके स्वभावादिके परिप्रेक्ष्यमें विकस्वर मनोविज्ञान-विश्व रचना प्ररूपित भूगोल, खगोल, भूस्तर शास्त्रादि और अतीतको उजागर करनेवाला इतिहासादि विषयक वैविध्यपूर्ण साहित्यको आस्वाद्य करनेवाले क्षुधातुर जिज्ञासुको परितृप्तिकी डकार आये बिना नहीं रहती ।
जैन साहित्यिक रचना शैली-जैन संस्कृतिकी आप्त परम्परानुसार . 'नामूलं लिख्यते किंचित्'- के न्यायाधारित जो भी साहित्यिक रचनायें हुईं उनमें पूर्वाचार्योंके अनुग्रहको ही अग्रसर करके स्वयंकी लघुता प्रकट करना ही अभीष्ट माना गया है । यही कारण है कि अन्य दर्शनोंमें जो प्राचीन और अर्वाचीन साहित्यके आमूल परिवर्तन दर्शित होता है, ऐसे परिवर्तनोंका जैन साहित्यमें अंश भी नहीं है - “आज भी पूर्वापरके अनेकानेक ग्रन्थोंका वाचन-मनन करके ग्रन्थरचनाका कार्य चलता ही रहा है । हिन्दी भाषामें ऐसे निर्माण कार्य पू. श्रीआत्मारामजी महाराजने अंतिम शतकमें बड़े पैमाने पर किया ।"५
जैन साहित्य रचनाकी परंपराका निरीक्षण करते हुए ज्ञात होता है कि अनादिकालीन अनंत तीर्थंकर भगवंतोंके देशना-प्रवाहको ही भ. श्रीऋषभदेवसे भ. श्रीमहावीर स्वामी पर्यंत सभी तीर्थंकरोंने प्रवाहित किया । उसे श्रवण करके गणधर भगवंतोंने उन्हें सूत्रबद्ध कियाः तत्पश्चात् शिष्य-प्रशिष्योंकी अध्ययन परम्परासे उसका संरक्षण और यथोचित संस्करण हुआ अनुप्रेक्षा और स्वाध्याय द्वारा अक्षुण्ण रूपमें प्रवहमान उन विपुल ज्ञानराशिको पतितकाल प्रभावसे प्राप्त अकालादि परिबलोंके कारण व्याघात पहुँचा । अध्ययन प्रक्रिया अस्तव्यस्त होनेसे वह ज्ञानराशि विस्मृत बनने लगी । अतः उसकी सुरक्षा हेतु श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणजीने उस कंठस्थ ज्ञानराशिको ग्रंथस्थ किया । तत्पश्चात् आर्यरक्षित सूरिजीने उसे ही अधिक सरल बनाने हेतु पृथक् अनुयोग व्यवस्था की । अनेक गीतार्थ पूर्वाचार्योंने उस ज्ञानराशिको अधिकाधिक स्पष्ट एवं सरल बनाने हेतु उन्हींकी नियुक्तियाँ-चूर्णियाँ-भाष्य-टीकायें आदिके रूपमें साहित्य निर्माण किया । अंततः वर्तमानमें उपलब्ध जैन साहित्य अपने मूल रूपको निभाते हुए नये परिवेशमें संवर्धित-व्याख्यायितसरलतम रूप लिये हमें प्राप्त हो रहा है | आचार्य प्रवर श्रीआत्मानंदजी म.ने भी अपनी साहित्यिक रचनाओंमें अनेकानेक संदर्भ ग्रन्थोंका आधार प्रदर्शित करते हुए उसी परम्पराका निर्वाह किया है । अतः यह स्पष्ट और स्वाभाविक ही है कि उनकी रचनाओंमें पूर्वाचार्योंके साहित्यका प्रभाव दृष्टिगत हों ।
आपकी रचनाओमें श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म., श्रीहेमचंद्राचार्यजी म. आदि पूर्वाचार्योंकी रचनाका बालावबोध (अनुवाद सहित विवरण) हैं, तो भ. श्रीऋषभदेव द्वारा प्रवर्तीत सांसारिक व्यवहारोंको लक्ष्य करके मनुष्यके जन्मसे मृत्यु तकके संस्कार-सोलह संस्कारोंका-स्वरूपादि श्री वर्धमान सूरि कृत 'आचार दिनकर' ग्रन्थाधारित विवरण जनहितार्थ किया गया है । वेद चतुष्टय एवं मनुस्मृति-महाभारत-उपनिषद-पुराणादिकी एकान्तिक प्ररूपणायें, हिंसक या वैषयिक प्ररूपणायें आदिका, ईश्वर जगतकर्तृत्वका आदि अनेक तथ्योंका खंडनमंडनात्मक फिरभी रसात्मक साहित्यिक शैलीमें विश्लेषण किया है । श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजीम. एवं महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी म. सदृश नय-प्रमाणोंकी तर्कबद्धता और परमतवादियोंका सैद्धान्तिक खंडन एवं स्वमतका मंडन दृष्टि गोचर होता है। उसी प्रकार उनकी पद्यरचनाओंमें पद-स्तवन-सज्झायादि काव्य प्रकारों में श्रीआनन्दघनजी म. एवं श्रीचिदानंदजी म. आदिकी यौगिक मस्ती है, तो तुलसी आदिका सम्पूर्ण समर्पण भाव छलकता है । वैसे ही पूजादि काव्यशैली में पं. श्रीवीरविजयजी म. आदिके समान भक्तिभाव (द्रव्यभक्तिके साथ भावभक्तिका तुल्य सामंजस्य) निखर आया है। यहाँ अब उन सभी महानुभावोंके परिप्रेक्ष्यमें आचार्य प्रवर श्रीआत्मानंदजी म.के व्यक्तित्व और कृतित्वका परिशीलन करवानेका प्रयास किया जा रहा है। सूरि पुरंदर श्री हरिभद्रजी म.सा. और सरि सम्राट श्री आत्मानंदजी म.सा.---
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