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________________ स्वीकृत के मान्य गणाता तथ्योगां ज्यां, जे कांई मिश्रण के परिवर्तन थयेलूं मालूम पड़े त्यां तेना यथार्थ तत्वतथ्य सुधी पहोंचवानी दिशामां यथामति उद्यम करवो, ए पण एक अनेरो बौद्धिक विहार बनी रहे तेम छे । ६५ ऐसे समयमें युग प्रवर्तक श्री आत्मानंदजीके ज्ञान सरोवरमें उस संशोधन क्षेत्र फलकको संभालकर और सम्मार्जित कर संवर्धित करनेवाले पुंडरिक पद्म विकस्वर हो चूके थे। उनके प्रत्येक ग्रन्थों में हमें उनकी उस विचक्षण-विलक्षण, परिमार्जनसे अंकित अन्वेक्षिकाका अनुभव प्राप्त होता है। इनके ब्रहत नवतत्त्व संग्रह जैन तत्वादर्श, चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग-१-२. अज्ञान तिमिर भास्कर, तत्त्व निर्णय प्रासाद' आदि ग्रन्थों में हमें उनकी अनुसंधान दृष्टिकी शक्तिकी अमिताभ आभाळा स्पष्ट रूपेण परिचय प्राप्त होता है । इन्हीं गुण सौरभसे आकर्षित स्वदेशीय और विदेशीय अनेक विद्वद्वर्य भ्रमरौका गुंजन इनके इर्द-गिर्द सुनायी देता था यथा-बेवर, जेकोबी, व्हूलर, पीटर्सन, होर्नले आदि । इन सभीमें से उनके ज्ञानोद्यानकी खुश्बूका यथेष्ट सर्वाधिक आस्वाद डॉ. हॉर्नलेने लिया था । उनके ज्ञानके आदान-प्रदानका संग्रह जो पत्र व्यवहार रूपमें हुआ था, उन पत्रोंका संकलन प्रश्नोत्तर रूपमें-(प्रश्नोत्तर संग्रह, प्रका. श्री जैन आत्म-वीर-सभा: भावनगर) नामक पुस्तकमें किया गया है। डॉ. हॉर्नले उनके आगमिक ज्ञान और प्रत्त्युत्तरोंकी सर्वांग परिपूर्णताविषयलक्षिता-तर्कबद्ध सुरेखता एवं अविलंब नियमिततासे अत्यन्त प्रभावित हुए परिणामता अपना संशोधित और अनुवादित आगम ग्रंथ " उपासक दशांग सूत्र” को उन उपकारीके पाद-पद्मों पर प्रशस्ति गान सहित समर्पित किया । इस तरह निर्विवाद है कि तत्कालीन अर्वाचीन युगकी आधुनिकताके साथ उस युगमें कदम मिलानेवाले से अनुपमेय आचार्य प्रवर थे । वाचकवर्य श्रीउमास्वातिजीम विरचित 'श्रीतत्त्वार्थाधिगम सूत्र अनुसार मोक्षमार्गका प्रथम अंग है स. दर्शन अर्थात् सत्यके प्रति संपूर्ण श्रद्धा, सम्यक दृष्टिबिन्दु अथवा श्री अरिहंत परमात्माके प्रति अविरुद्ध आस्था और दूसरा है ज्ञान । तो श्रुतकेवली श्री शय्यंभव सुरीश्वरजीके 'श्री दसवैकालिक सूत्र' अनुसार 'पढमं नाणं तओ दया'- प्रथम ज्ञान बादमें दयाका आचरण करना उपयुक्त है, क्योंकि बिना ज्ञान दया पालना असंभव सा बन जाता है । अतः यह सिद्ध है कि ज्ञानका माहात्म्य जैन संस्कृतिमें अति प्राचीन कालसे अपनी चरम सीमा पर स्थित था और अर्वाचीन कालमें भी है। जैनधर्मके ऐसे उत्तमोत्तम ज्ञानराशिकी परम्पराका निर्वाहक साहित्य भी उतना ही समृद्ध है। संसार व्यवहारके विश्व प्रसिद्ध प्रत्येक विषयक ज्ञानकी परिपूर्णतासे सुसम्पन्न जैन वाङ्मयके विषयमें जितना भी कहें अपर्याप्त ही है । आज भी जैन साहित्य में निरूपित कई विषय ऐसे भी हैं जिनके विषयमें आधुनिक विज्ञान या वैज्ञानिक और विद्वान विश्लेषक या संशोधकोंकी पहुँच नहीं जिसके लिए केवल आधिभौतिक अन्विक्षण अपर्याप्त माने जाते हैं, जहाँ केवल आध्यात्मिक आराधना ही एक मात्र तदबीर हो सकती है-ऐसे उत्तमोत्तम साहित्यके अत्यंत दयनीय हालातका चित्रण करते हुए श्री अमरनाथजी औदीचजी लिखते हैं The community altogether lost sight of this spiritual wealth, with the result that most of the literature was on the verge of being eaten up by vermins. Due to lack of attention several valuable manuscripts on palmleaves had been destroyed by white-ants, while some had become almost indecipherable." आचार्य प्रवर श्री आत्मानंदजीम. सा. ने स्वयं अपने अज्ञान तिमिर भास्कर ग्रन्थमें इस दुर्दशाको वर्णित करते हुए लिखा है "मुसलमानोंके राज्यमें लाखों पुस्तकें जला दी गई और जो कुछ शास्त्र बचे हैं, वे भंडारोंमें बंद कर दिये गए हैं जिनमें पड़े पड़े गल गये हैं, जो बचे हैं वे भी दो-तीन सौ वर्षमें गल जायेंगे- " इस अवस्थाको ज्ञानके प्रति संपूर्ण समर्पित नेकदिल हृदय कैसे सह सकता है ? उनकी तड़पती आत्मासे कसक उठी और कमर बांधकर वे उठ खड़े हुए । उनकी अनुभवी निगाहोंने उस परिस्थितिका ताग लिया और कागज़ कलमके दो पंखोंके सहारे उस ज्ञानपंछीने ज्ञान-गगनमें स्वैर विहारका प्रारंभ किया। उनकी प्रत्येक उहानसे नित्य नूतन लक्ष्योंकी प्राप्ति होने लगीं। उनकी त्रिविध साहित्यिक सेवायें-संरक्षणसमार्जन-संवर्धन जैन समाजके लिए सूचक, समयोचित और सार्थक सिद्ध हुई हैं। Jain Education International 111 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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