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________________ संरक्षण और संमार्जन-इनके अंतर्गत उनके द्वारा किये गए कार्योंका प्रारूप निम्नांकित है । जो ज्ञानभंड़ार भूमिगृहों में आलमारियों सन्दूकोंमें बंद पड़े थे आक्रामकोंके भय दूर होने पर भी दीर्घकालीन प्रमाद- आलस्य और अज्ञानता के कारण आध्यात्मिक समृद्धिको निहारनेवाले नयनपट बंध होनेसे ज्ञान प्रकाशका असर नहीं होता था, न किसीको कुछ सुझता था पूर्वजोंकी उस अमूल्य साहित्यिक संपत्तिको अज्ञान जैनोंने कंजूसकी तरह कैद कर रखा था । यह समां था जब व्यक्तिके, उस ज्ञान-निधिके दर्शन करनेके प्रस्तावको भी शंकित नज़रोंके बाणोंसे घायल कर दिया जाता था | Atmaramji prevailed upon the people to take the books out of the cellars and to let him inspect their conditon.....every effort was made by him to have them copied out where possible. In some cases the books were repaired or rebounded and regular libraries were started for their proper care & upkeep. He deputed some of his disciples to prepare lists of this literature for futher reference." आचार्य प्रवरश्री ऐसी जाज्वल्यमान प्रतिभाके स्वामी थे कि समस्त जैन जाति उनके एक इशारे पर सर्वस्व न्योच्छावर करनेको तत्पर थी । अतः उस प्रतापी प्रभावका ही परिणाम था कि उन्होंने जैन संघोंके आधिपत्यवाले बहुमूल्य ज्ञानार्णवको, उनके प्रमुख सदस्योंको समझाकर और वैयक्तिक ज्ञानभंडारोंमें स्थित ज्ञानराशिके लिए उनके स्वामी प्रत्येक व्यक्तियोंको समझाकर उन सभीके अधिकारमें रहें उन आगमिक एवं शास्त्रीय कोषागारोंको खुलवा दिये । उनके विचारसे ज्ञानोद्यानकी सुरभि किवाडोंमें बंद कर देनेसे नष्ट हो जाती है- सुगंध दुर्गंधमें पलट जाती है-उद्यान उजड़ जाता है; उसे जितना भी खुला रखा जाय उसकी सुवास वितरित की जाय, वह अधिकाधिक प्रफुल्लित और महकदार बनता है । उन भंडारोंको खुलवाकर उन्होंने उनका निरीक्षण किया। कई अलभ्य अत्युपयोगी-अमूल्य ग्रंथोंकी प्रतिलिपियों करवायीं । कोई भी व्यक्ति अंदाजा लगा सकती है कि गुजरांवालांमें केवल पं. श्री बेलीराम मिश्रजीने ही बीस साल पर्यंत प्रतिलिपियों करनेका कार्य किया । अतः बीस वर्षोंमें कितनी प्रतिलिपियाँ की होगी ! ऐसे ही अन्य स्थलोंमें अन्य व्यक्तियोंके पास और अपने शिष्य-प्रशिष्योंके पास भी कई ग्रंथोंकी प्रतिलिपियोंका कार्य करवाया | बिस्मार पुस्तकें और पोथियोंकी मरम्मत करवायीं और अनेक प्रकारसे हिफ़ाजतपूर्ण उनको सुरक्षित स्थानोंमें रखा गया । उनके यथोचित उपयोगके लिए उन पुस्तकें- हस्तलिखित या मुद्रित या ताड़पत्रीय प्रतियोंकी सूचि तैयार करवाकर ज्ञानभंडारों व पुस्तकालयोंको व्यवस्थित किया या करवाया I ज्ञान-यज्ञ रूप इस जीर्णोद्धारके कार्यके लिए आर्थिक सहायता हेतु सबको प्रेरित किया, साथ ही साथ उसके पठन-मनन-निदिध्यासन करनेवाले जनसमूह और जैन संघको भी अनुप्राणित करते हुए साहित्य रसिक बनानेको यथाशक्य प्रयास किये जिसके अंतर्गत प्रमुख रूपसे प्राचीन भाषायें एवं लिपियोंके अध्ययनअध्यापन और संस्करणके लिए विशिष्ट कार्य किये गये । आगम प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्य विजयजीम. ने उनकी उन शक्तियोंको प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि “स्वर्गवासी गुरुदेवना ज्ञानभंडारमां तेमना स्वहस्ते संशोधित अनेक ग्रन्थों छे । तेमां 'सन्मति तर्क' शास्त्रनी हस्तलिखित प्रतिने ए गुरुदेवे पोते बांचीने सुधारेली छे, जे सुधारेला पाठोने मुद्रित 'सन्मति तर्क' ना संपादकोए तेमनी टिप्पणीमां ठेकठेकाणे स्थान आप्युं छे पंजाब देशमां आगे स्थान स्थानमा स्वर्गवासी गुरुदेवना बसावेला विशाल ज्ञानभंडारो छे, जेमां सारभूत प्रन्थोनो संग्रह करवा गुरुदेवे अथाग प्रयत्न कर्यो छे । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी गणिजी कृत 'पातंजल योगदर्शन' टीका, 'अनेकान्त व्यवस्था' जेवा अलभ्य दुर्लभ्य प्रासाद ग्रन्थोनी नकलो आ भंडारमां विद्यमान छे जे बीजे क्यांय जोवामां आवती नथी । स्वर्गवासी गुरुदेवे विहार दरम्यान ग्राम ग्रामना ज्ञानभंड़ारोनी बारीकाइथी तपास करी अलभ्य ग्रन्थोना ज्यांथी मळी आव्या त्यांथी उतारा कराव्या छे । तेनाथी तेमनी अपूर्व साहित्य-परीक्षक सूक्ष्मेक्षिकानो परिचय थाय छे । ६८ इसके अतिरिक्त जैन साहित्यके प्रचार-प्रसार और अनुवाद अनुसंधानादि कार्यमें भी हार्दिक दिलचस्पीके साथ सक्रिय मार्गदर्शन दिये और स्वयं भी कदम बढ़ाये । जैन परंपरानुसार आगम-अध्ययन योगोद्वाहक Jain Education International 112 For Private & Personal Use Only ***** www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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