SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभावकने परिपूर्ण निष्ठाके साथ निभाया । आज अनेक स्थानों पर गुरुकुल-विद्यालय-कॉलेज-पुस्तकालयपाठशालायें-ज्ञानभंडारादि शिक्षण संस्थायें विद्यमान हैं, ये उन्हींके विचारोंका मूर्तरूप हैं । इसे सिद्ध करते हैं ये शब्द -“यद्यपि गुरुदेवने पंजाबमें बहुतसे मंदिर निर्माण करवाये, तथापि उन्हें उतने ही कार्यमात्रसे संतोष न था, उनके हृदयमें इन मंदिरोंके पूजारी पैदा करनेकी भावना थी । उनके दिलमें एक कसक थी-प्रबल ईच्छा थी, कि इनके साथ कई सरस्वती मंदिर भी स्थापित किये जाये और उन्हें विशाल (विश्व) विद्यापीठ बनाकर समाजका कल्याण किया जाय । जब तक ज्ञानका प्रचार न किया जायेगा तब तक किया हुआ कार्य स्थायी नहीं रह सकता ..... गुरुदेवके नाम पर कई शिक्षण संस्थायें, कईं पुस्तक प्रचारक संस्थायें, कई पुस्तकालयज्ञानभंडारादि स्थापित हुए, जिनका संक्षिप्त परिचय पाठकोंको इस लेखमें मिलेगा ।"६१ आचार्य प्रवरश्री आत्मानंदजीकी भावनाके परिपाक स्वरूप सरस्वती मंदिर ऐसे होने चाहिए कि जिसमें केवल श्रद्धायुक्त धार्मिकता न होकर ऐतिहासिकता-वैज्ञानिकता या अन्वेक्षिकताका आलोक भी हों, जिससे जैन सिद्धान्तोंके अध्ययन और अनुसंधानके लिए विश्वस्तरीय कार्य फलक पर एक आदर्श संस्थामें देशविदेशके जैन-जनेतर-प्रौढ़ एवं अनुभवी विद्वान विशिष्ट परिशीलन करते हुए मानव जीवनकी पेचीदी समस्याओंको सुलझानेका सौभाग्य प्राप्त करें । सम्यक् (सच्चा) ज्ञान ही जीवन है, प्रशस्त प्रकाश रूप है, अतः हमारे जीवनके दौरेमें हमें सशक्त बनानेवाली एवं अन्य जाति-समाज या राष्ट्रके मुकाबलेमें स्थिर बनाये रखनेका सामर्थ्य प्रदान करते हुए धर्मज्ञानसे विभूषित करनेवाली जातीय शिक्षण संस्थाओंकी अत्यावश्यकता हैं । इन्हीं तथ्योंको प्रस्फुटित कर्ता श्री मथुरदासजीके भाव देखें - शिक्षाकी उन्नतिको जैन समाजके अभ्युत्थानका प्रबल साधन समझते हुए ही प.पू.न्यायांभोनिधि स्वर्गीय आचार्य श्री विजयानंद सुरीश्वरजीम.के हृदयमें एक विशाल शिक्षण संस्था खोलनेकी भावना उदित हुई थी । विद्वद्वर्य श्रीमद्विजय वल्लभ सूरिजी म.ने अपने गुरुवरकी भावनाको क्रियात्मक रूप देनेके लिए श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल-पंजाब, गुजरांवालांकी स्थापना की थी । ..... पू. आचार्यश्रीजीकी शिक्षाप्रियता केवल इस संस्थासे विदित नहीं होती है, बल्कि श्री महावीर विद्यालय, श्री पार्श्वनाथ विद्यालय, अनेक गुरुकुल-बालाश्रमादि अनेक संस्थायें स्थापित करके आपश्रीने जैन समाजके उत्थानके अत्यावश्यक साधन-शिक्षाका विशेष प्रचार किया है ।६२ इन विविधलक्षी सरस्वती मंदिरोंके अतिरिक्त उन्होंने शिक्षाके क्षेत्रमें अत्यंत महत्वपूर्ण नूतन ज्ञानभंड़ारपुस्तकालयोंकी स्थापनायें, प्राचीन ज्ञानभंडारोंके पुनरुद्धारके कार्य (उसके लिए आर्थिक योगदान-शिक्षण निधि फंड़-आदिकी योजनायें), जीर्ण-शीर्ण फिर भी महत्वपूर्ण ऐसे ताड़पत्रीय एवं अन्य प्राचीन-उत्तम-अलभ्य ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ तैयार करवानेके कार्यको भी गतिशील किया । श्री बनारसीदासजी जैनकी श्रद्धांजलि - सुमनकी झलक देखें. -“एक विद्वानका कथन है कि सच्ची युनिवर्सिटी अथवा रिसर्च इन्स्टीट्यूटके प्राण तो पुस्तक-संग्रह है । महाराजजी भी इस विचारसे सहमत प्रतीत होते हैं, क्योंकि गुजरांवाला नगरमें जहाँ वे सरस्वती मंदिर खोलनेके भाव रखते थे, वहाँ पं.बेलीराम मिश्रजी सं. १९३१से शास्त्रोंकी प्रतिलिपि करने पर नियुक्त थे । प्रतिलिपिका यह कार्य बीस वर्ष तक चलता रहा । इसके अतिरिक्त पुस्तक भंडारको पूर्ण रूप देनेके लिए महाराजजीने सैंकड़ों प्राचीन लिखित और नवीन मुद्रित प्रतियाँ गुजरात-मारवाड़से पंजाब भिजवाईं । इनके साथ पंजाबके यतियोंके ज्ञानभंडार भी मिले । इस प्रकार म.सा.ने पंजाबमें पूर्ण रूपेण पुस्तक संग्रह कर दिया था ।६३ इन अनेकविध कार्योंमें अपना श्रेष्ठतम योगदान सुरीश्वरजीने जीवनपर्यंत दिया । हम यह कह सकते हैं कि उनका आद्योपांत जीवन-जीवनका प्रत्येक पल - शिक्षाके आदान प्रदानसे ही संलग्न था । वह समय था, जब शिक्षणक्षेत्रमें अन्वेषिकी दृष्टिने प्रवेश कर दिया था । तुलनात्मक, ऐतिहासिक अनुसंधानोंका साम्राज्य संसारभरमें फैला हुआ . था । “प्राचीनकालथी चाल्या आवता धर्म तरफ जोवानी अनेक दृष्टिओ होय छे । आजना जमानामां ऐतिहासिक दृष्टि प्रधानपद भोगवे छे ।”६४ ___“आपणो युग संशोधननो छे । घणुं बधुं साहित्य दटायेलुं पडयुं छे । तेने शोधी काढ़ी तेमांथी मळता ज्ञानने प्रकट करवानी जगत समक्ष धरवानी पण एक मज़ा छे । तो क्षीर-नीर विवेचन दृष्टि केळवी परंपरा (110) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy