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________________ अपने धार्मिक तत्त्वोंका श्रद्धालु तथा भक्त नहीं रहता..... मेरा विश्वास है कि, हमारी शिक्षा पद्धतिको लोगोंने कुछ और अपनाया तो अबसे करीब तीस वर्ष पश्चात् बंगालके प्रतिष्ठित परिवारोमें एक भी व्यक्ति मूर्तिपूजक न रहेगा..... अर्थात् हमें अपनी चरमसीमा तक ऐसा भगीरथ प्रयत्न करना चाहिए कि हम अपने करोड़ों शासित भारतीयोंके बीच एक ऐसा समुदाय तैयार करें जो हमारी बात उन तक पहुँचा सकें । वह समुदाय रक्त-रंग और जन्मसे तो भारतीय होगा किंतु रुचि-विचार-भाषा और बुद्धिके दृष्टिकोणसे अंग्रेज ।१५७ मेकोलेके इन भविष्य कथनोंको भोले भारतीयोंने संपूर्ण सत्य सिद्ध कर दिखाया है। उच्च विचार और सादा जीवन के भारतीय जीवन-धारा प्रवाहको इस शिक्षण पद्धतिने छिन्न-भिन्न ही कर दिया, जिसके विषाक्त फल वर्तमानयुगमें अधिकाधिक तीव्रतासे अपना विपाक प्रदर्शित कर रहे हैं। इन परिस्थितियोंमें आचार्य प्रवरश्रीके विचारसे व्यावहारिक शिक्षाके साथ धार्मिक शिक्षाका और धार्मिक शिक्षाके साथ व्यावहारिक शिक्षाका होना अत्यंत उपयोगी है । दोनों एक ही पक्षीके दो पंख समान है; समाजके लिए दोनोंका समन्वय ही विशिष्ट उपकारक और उपयोगी बन सकता है । केवल धार्मिक शिक्षासे गृहस्थ जीवन दुष्कर होगा और केवल व्यावहारिक शिक्षा स्वार्थ-उच्छृखलता-स्वच्छंदता और नास्तिकता लायेगी। दोनोंके सामंजस्यसे मनुष्य अपनी आजीविका ईमानदारीसे अर्जित करेगा -“विद्या वह जो लिखित, पठित, वाणिज्यादि कलाका ग्रहण करें अर्थात् अध्ययन करें । अनपढ़ पग-पगमें पराभव पाता है, अरु विद्यवान् विदेशमें भी माननीय होता है। इस वास्ते सर्व प्रकारकी कला सिखनी चाहिए । क्या जाने क्षेत्र-कालके विशेषसे किस कलासे आजीविका करनी पड़े। जब सर्व कला सिखने में असमर्थ हों, तब जिस कलासे सुखपूर्वक निर्वाह हों और परलोकमें सद्गति हों वह कला सिखें ।५९ परमोपकारी उन तारक गुरुवर्यने अपनी पैनी नज़रसे भांप लिया था कि, ऐसी तत्कालीन, हानिकारक शिक्षाका प्रतिकार करनेके लिए केवल एक ही रामबाण उपाय है-धर्मकी श्रद्धाका दृढ़ीकरण, जिसके लिए आज़मानी होगी गुरुकुल शिक्षण प्रणाली; जो विद्यार्थीको पतीत पावन जीवनके लिए पवित्रता, स्वावलंबन, उच्च विचार और सादा रहन-सहनादिसे पुष्ट सामर्थ्यशाली शांति-समता, पराये अपराधके प्रति क्षमा-प्रदाता सहनशील उदारता, विशिष्ट चारित्रिक गठन, स्वमानकी सुरक्षा एवं गौरव, उत्तमोत्तम धार्मिकता, परमोपकारक सामाजिकता, धीरता-वीरता-गंभीरतादि गुण प्रस्रवा शैक्षणिकता और स्वतंत्र सदाशयी आर्थिक स्थिरता प्रदान करनेकी क्षमता रखती है; जो वर्तमान विषैले शिक्षणसे मुक्त करवाकर भावि भारतके कर्णधारोंको जीवन विषयक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रमें पोषक बनकर महान उपकारक बन सकती है । अतः अपने जीवनकी अंतिम सांस पर्यंत-सर्व जीवराशिसे अंतिम क्षमापनादि करके जीवन-किताबको समापन करते करते भी उनकी वाणीसे उनके कृपावंत हृदय कमल स्थित खयाल पुष्पोंकी सुरभि प्रसारित हुई है -“वल्लभ ! लधियानेवाली बात याद है न ! .... उसका पूरा पूरा ध्यान रखना । ज्ञानके बिना लोग धर्मको नहीं समझ पावेंगे ६0 (लुधियाना शहरमें एक बार एक क्षत्रिय भक्त द्वारा समाजको शिक्षित बनानेके लिए सरस्वती मंदिरोंकी स्थापना करनेके सूचन पर उन्होंने फर्माया था कि श्रावकोंकी श्रद्धा स्थिर करनेवाले श्रीजिनमंदिरोंकी आवश्यकताकी पूर्ति करीब करीब हो गई हैं और अब जीवनके उत्तरार्धमें शरीरने साथ दिया तो ज्ञानयज्ञकी ओर पुरुषार्थ करनेके लिए कटिबद्ध बनना है । लेकिन अपनी अंतरेच्छाको साकार स्वरूप देनेके पूर्व ही कालचक्रके घूमने पर उनकी ख्वाहीश अधूरी रही । इस बातकी ओर इंगित करते हुए उन्होंने इसे अंतिम अंतरेच्छाके रूपमें प्रदर्शित करते हुए प्रिय प्रशिष्य श्री वल्लभविजयजीको सरस्वती मंदिर स्थापित करके-ज्ञानयज्ञ प्रारम्भ करके-समाजको ज्ञान-प्रदानके लिए एलर्ट किया ।) उनके विचारसे ऐसे उपयुक्त शिक्षा प्रबन्धके लिए यथोचित क्षेत्र पंजाबमें केवल गुजरांवाला ही था। यही कारण था कि वे सनखतराके श्री जिनमंदिरजीकी प्रतिष्ठा करवानेके पश्चात् तुरंत गुजरांवालां पहुंचे। लेकिन, आपकी मनोकामनाको कार्यान्वित करनेवाला सूर्योदय आप न देख सकें । अपना अपूर्ण कार्य पूर्ण करनेका कार्यभार श्रीमद्विजय वल्लभसुरीश्वरजीको सुपुर्द किया, जो उन परम गुरुभक्त पट्ट 109) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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