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________________ आर्थिकः-जैनधर्मका वैशिष्ट्य उसकी अपनी असाधारण सिद्धान्त प्रणालीके बल पर चमकता है । तदनुसार किसी भी व्यक्तिको जीवनमें करणीय चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-माने गये हैं । इनमें आदिअंतके दो पुरुषार्थ अध्यात्मके स्तंभ है, तो मध्यके दो भौतिकताके आधार । फिर भी धर्मके साथ अर्थको और मोक्षके साथ कामको जोड़कर विशिष्ट प्रणालीका सृजन जैनधर्म द्वारा हुआ है । इन युग्म द्वयसे यह सिद्ध करनेका प्रयास हुआ है कि अर्थ (धन) प्राप्ति भी बिना धर्म अशक्य है, एवं धार्मिक भावनाकी शून्यतामें प्राप्त धनलाभ आत्माका एकान्तिक शत्रु बन बैठता है । तो मोक्षके साथ कामका युगल शिक्षा देता है कि, विश्वमें कमनीय काम (ईच्छा-कामना-वासना) केवल एक ही होना चाहिए-महज़ मोक्ष प्राप्ति-अतिरिक्त मोक्षके, किसीभी प्रकारकी कामना जीवात्माके लिए संसार वृद्धि और अंततः परंपरासे दुःख वृद्धिका हेतु बन जाती है । मोक्ष प्राप्तिके पुरुषार्थमें ही सर्व एषणाओं-अपेक्षाओं और आशाओंका संतुलन स्थित होता है । अतः अध्यात्म और भौतिकता, निश्चय-व्यवहार-दोनों एक आत्मासे संलग्न परस्पर पूरक है । इस प्रकार अर्थप्राप्तिमें धर्मको अवलंबन रूप दर्शाते हुए धर्मोपदेशकोंने अर्थकी आवश्यकताके साथ क्षुल्लकताको भी प्रदर्शित कर दिया है । धन-प्राप्तिके लिए जैनधर्मशास्त्रों द्वारा लक्ष्मण-रेखा खिंची गई है। केवल 'वैभव' नहीं लेकिन 'न्याय सम्पन्न वैभव' प्राप्तिको गृहस्थ धर्मका प्रमुखगुण फरमाया गया है। उसीको लक्ष्य करते हुए आचार्य प्रवर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा. “जैन तत्त्वादर्श" ग्रन्थके नवम परिच्छेदमें अर्थार्जनके उपायोंका विस्तृत विवरण देते हुए लिखते हैं, "सच्चा श्रावक निर्लोभी और पक्षपात रहित होना चाहिए ..... अधिक धनप्राप्ति होने पर भी अभिमान न करें और धनहानि होने पर खेद न करें; न धर्मकरणीमें आलस्य करें क्योंकि, जन्म जन्मांतरके पुण्य-पापोदयसे संपदा-विपदा आती है, इस वास्ते धैर्यका आलम्बन श्रेष्ठ है ..... दुर्भिक्षमें अन्नका अधिक मोल न लें, अधिक व्याज न लें, किसीका गीरा पड़ा धन न लें, खोटा तोल-माप, न्यूनाधिक वाणिज्य, भेल-संभेल, अनुचित मोल या व्याजादि न लें, दूसरोंका व्यापार भंग न करें, परवंचकपना वर्जे, जूठ सर्वथा न बोलें, न्यायसे धनोपार्जन करें ।"५० 'न्याय सम्पन्न वैभव' प्राप्तिसे श्रावक अधर्म-राजद्रोह-लोकविरुद्धतासे बचकर पाप-बंधसे त्राण उपलब्ध करता है । विश्व व्याप्त अर्थव्यवस्थामें पारस्परिक समानताके लिए 'न्याय संपन्न वैभव के साथसाथ, दान भावना अर्थात् धन-त्याग-वृत्तिका उपदेश देते हुए आपने कहा कि “जद लाभ हो जावे, तदा चिंतानुसार मनोरथ सफल करें; क्योंकि व्यापारका फल है धन होना, अरु धन होनेका फल है धर्ममें धन लगाना, नहींतो व्यापार करना-सो नरक, तिथंच गतिका कारण है । जो धर्ममें खरचे वो धर्म-धन, जो धर्ममें न खर्चे, वो पापधन कहा है। ..... इस वास्ते नित्य प्रत्ये स्वधनको दानादि धर्ममें लगाना चाहिए ।५१ । पाश्चात्य देशोंके धनाढ्य और धनहीन, राय और रंकके मध्य जो अनमिट फासला दिखाई देता है, उसे मिटानेकी जितनी कोशिशें होती हैं मानो उतनी ही तीव्रतासे बढ़ता जाता है । जिसका असर शनैःशनैः पूर्वके देशोमें भी फैलने लगा है । उस कशमकशका उपाय जैनधर्मानुसार गहन एवं विशद चिंतनधाराके प्रवासी परम करुणामय श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने अपने चिंतन सीकरोंमें प्रतिबिम्बित किया है। उन्होंने दर्शाया कि, हमारी अंतस्तलकी गहराईसे स्वस्थ समाज रचनाकी झंकारें-पुकारें-गर्जनायें उठे; समाजकी हर व्यक्तिको योग्यतानुसार समान अधिकार मिले; सभीको जीवनयापन योग्य प्राथमिक आवश्यकतायें साहजिक सरलतासे प्राप्त हो सकें और सभी आत्मकल्याण कर सकें-यही हमारा कर्तव्य है । उनकी दीन-हीनक्षीण-निर्माल्य मनोदशा, उन्हें निष्पाप जीवनसे विमुख करेगी । यही समझो कि, उनको ऊपर उठाकर आप स्वयंको गिरनेसे बचा रहे हों । उनको दान देकर, आप निजात्माको लाभान्वित कर रहे हों । अगर साधर्मिक बंधुको गले न लगाया, तो किसी अन्यके प्रति आपके दिलमें स्नेह सरिता कैसे बहेगी ? “जिस ग धनहीन होवे और श्रावकका पुत्र धनहीन होवे, तिसको किसीके रोजगारमें लगाकर तीसके कुटुंबका पोषण हों तैसे करें । जिस काममें सिहत हों उसमें मदद करना-स्वामी वात्सल्य है । ५२ इसके साथही दान किस प्रकार, कैसे पात्रको, किस विधिसे देना अभीष्ट है उसे स्पष्ट करते (100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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