________________
जिन-शासन सेवाके उस सच्चे भेखधारी द्वारा प्रेरित और प्रतिबोधित-जैन सिद्धान्तोंमें निपुणता प्राप्त करके “विश्व-सर्वधर्म परिषद में जैनधर्मके प्रतिनिधि रूपमें जाकर जैन तत्त्वके और सिद्धांतके स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद, निश्चयनय और व्यवहारनय, प्रतिमा पूजनके रहस्यादि अनेक विषयक पाश्चात्य विश्वके अज्ञानांधकारसे बंध पड़लोंको खोलकर अपनी तीव्र मेधा तथा बुद्धि प्रतिभाके चमकारसे जैनधर्मकी दीप्र ज्योत-प्रभाको प्रकाशित करनेवाले; डंकेकी चोट पर जैनधर्मको गौरवान्वित बनानेवाले श्री वीरचंदजी गांधी, बार.एट.लॉ.-को, जब बम्बई जैसे सुधारक और स्वातंत्र्य प्रेमी शहरके जैन समाजके कुछ सदस्योंने, केवल परदेशगमनकी परंपराके निषेधात्मक दस्तूरको पकड़कर जैनसंघ बाहर करनेका निश्चय किया, उस समय भाविके भीतरमें दृष्टिपात करनेवाली वेधक नज़रसे दृष्ट दृश्यको आपने जिस अंदाज़से प्रस्तुत किया और श्री संघके उस विरोधको नीरव किया यह भी ज्ञातव्य है-“याद रखना, धर्मके वास्ते श्रीयुत गांधी तो समुद्र पार-अमरिका, चिकागो धर्म परिषदमें गया है, मगर एक समय थोड़े ही अरसेमें ऐसा आवेगा कि, अपने मौज-शौकके लिए, ऐश आरामके वास्ते, व्यापार रोजगारके लिए समुद्र पार-विलायत आदि देशो, जावेंगें उस वक्त किस किसको संघ बाहर करोगे? ___इस प्रकार एक मत प्रवाह चला आता था कि, सूत्रागमको न कोई छाप सकते हैं न छपवा सकते हैं, न उन छापने-छपवानेवालोंकी अनुमोदना हो सकती है । न कोई श्रावक-गृहस्थ उनका अभ्यास कर सकता है । ज्वार सदृश इस लोकप्रवाहसे विरुद्ध दिशामें उस महापुरुषने प्रतिघोष दिया । डॉ. हॉर्नले जैसे विदेशी संशोधकों और जिज्ञासुओंकी उन सूत्रागम विषयक शंका-समस्याओंका समाधान देकर जैनधर्मकी प्रभावनाकी पुड़ियाँ वितरित की थीं । इनके ऋणको याद करके उन विद्वानोंने भरपेट प्रशंसा पुष्पोंसे उन्हें सम्मानित किया था (जिसका जिक्र इस शोध प्रबन्ध अन्यत्र अंकित किया गया है।)
स्वातंत्र्य सेनानी सुरीश्वरजीने अपने एक पत्रमें तत्कालीन साधु समाजमें प्रचलित मान्यता-'श्रीभगवती सूत्र के योगोदहन किये बिना कोई भी साधु नूतन दीक्षितको छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान नहीं कर सकते हैं-इसकी असंगतता और जड़ताको किस प्रकार विश्लेषित किया है, और उसे किस प्रकार अर्वाचीन मोड़ दिया है, यह अनुमोदनीय-प्रशंसनीय एवं ज्ञातव्य है । अपनी कुछ न्यूनताओंको प्रकट करनेके पश्चात् वे लिखते हैं-“इत्यादि भगवंतकी बहुत आज्ञाओंका मैं विराधक हूँ। इस वास्ते में तो जिनराजके चरणोंका सरण ही अपने उद्धारका कारण समझता हूँ । बाकी भगवंतकी आज्ञा तो निकटसंसारी जीव ही पूरी (पूर्ण रूपेण) पाल सकते हैं..... थोड़े दिनोंसे जो कोई रूढ़ि चलती करी है, तिसको मैं तपगच्छकी समाचारी नहीं मानता हूँ,
और पूर्वाधार्योके पुस्तक देखनेसे यह भी सिद्ध होता है कि, योग वहनेकी रीति एक सरिखी अविच्छिन्न नहीं चली आयी है ...... जैसी जैसी द्रव्यक्षेत्रादिकी सामग्री मिलती है, तैसी तैसी प्रवृत्ति होती है । रूढ़ि पकड़के बैठे रहना यह सुज्ञोंका काम नहीं है । ४८ वस्तुतः ये न्यूनतायें भी उनकी अपनी नहीं, तत्कालीन समाजकीश्री संघकी अव्यवस्था और अराजकताके कारण व्याप्त थीं-सर्व साधु समाजकी थीं और उसके प्रति आचार्यश्रीजीके दिलमें तीव्र वेदना भी थी, अतः उन्होंने 'जिनाज्ञा'को ही अपने उद्धारका कारण माना है। एक क्रान्तिकारी सुधारक विचारधारी सदृश, उन्होंने रूढ़ियोंके सुधारकी ओर अपना संवेदन उद्घोषित किया। इन्हींसे उनकी स्वछंद नहीं-स्वतंत्र विचारधाराकी शीतलता-शुद्धता प्रस्फुटित होती है ।
वास्तविक रूपमें साधु हों या श्रावक, जैन हों या जैनेतर-मानवमात्रके लिए शुद्ध व्यवहार ही हितकारी है-इसकी परम आवश्यकताका स्पष्टीकरण देते हुए वे कहते हैं-“व्यवहार शुद्धि जो है सो ही धर्मका मूल है; जिसका व्यापार शुद्ध है, उसका धन भी शुद्ध है, जिसका धन शुद्ध है उसका अत्र शुद्ध हैं, जिसका अन्न (आहार) शुद्ध है उसकी देह और वृत्ति शुद्ध हैं, जिसकी देह और वृत्ति शुद्ध है वह धर्मके योग्य है। जो व्यवहार शुद्धि न पाले, व्यापार शुद्ध न करें, वह धर्मकी निंदा करनेसे स्व-परको दुर्लभ बोधि करते हैं। व्यवहार और अर्थका अतीव निकट, संबंध होता है, अतः गुरुदेवके अर्थक्षेत्रान्तर्गत उपकार भी दृष्टव्य हैं।
(105)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org