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riages between different sects and sub-sects of Jains ..... As a result of his preachings many Hindus, Muslims and Sikhs gave up meat eating, hunting and wine-drinking..... His message to mankind was to follow truth unflinchingly lead an active lite duty and do to others as they wish to be done by.***
__इस प्रकार बाल विवाह, विधवा विवाह, आंतर्जातीय विवाह, फिजूल खर्चवाले भोजन समारंभ, साधर्मिक वात्सल्य, क्षुल्लक मतभेद या विचारभेदोंके कारण होनेवाले जैनकौमके विभाजन, अज्ञानता-धार्मिक और व्यावहारिक निरक्षरता-पर्दाप्रथा आदि अनेकविध तत्कालीन कुरूढ़ियोंको हटा कर समाजोत्कर्ष हेतु उन्होंने डटकर प्रयत्न किये। समाजमें विभिन्न जातियोंमें जो अलगाव दृष्टि-गोचर होता था, उसके प्रति आपको सख्त नफरत थी । उनके विचारसे -“जितने मनुष्य जैनधर्म पालते हों, उन सर्वके साथ अपने भाईसे भी अधिक प्यार करना चाहिए ..... इस कालकी जैनधर्मको पालनेवाली सर्व जातियाँ श्री महावीरसे ७० वर्ष पीछे और वि. सं. १५७५ साल तकके जैनाचार्योंने बनायी हैं । तिनसे पहिलां चारों ही वर्ण जैनधर्म पालते थे, उस समयमें जातियाँ नहीं थीं ..... जो अपनी जातिको उत्तम मानते हैं, वह केवल अज्ञानसे रूढ़ि चली है ..... जातिका गर्व करनेवाले जन्मांतरमें नीच जाति पायेंगे । ..... अब भी कोई समर्थ पुरुष सर्व जातियोंको एकठी करें तो क्या विरोध
है
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___ तत्कालीन युगकी वह मानो आवश्यकता थी, जो दार्शनिक चिन्तन और धार्मिक प्रवचनके साथ कदम मिलाते हुए इहलौकिक उलझनोंकोभी सुलझाये; दलित-पीड़ीत वर्गके सुधार-परिष्कार करनेके लिए अतीतके इतिहास और धर्माख्यानोंके संबलके सहारे नूतन दृष्टिकोणको पेश करें । “जैन समाजमें वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सामाजिक कुरीतियोंकी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया । और उन्हें दूर करनेके लिए प्रशस्त मार्ग दिखाया । ..... उपरोक्त सब बातोंसे प्रकट है कि वे अपने युगके धार्मिक नेता ही नहीं बल्कि समाज सुधारके अग्रदूत थे । उन्होंने समाजमें फैली कुरीतियोंका मूलोच्छेद करनेके लिए भरसक प्रयत्न किये । व्यवहारिक:--तत्कालीन समाजमें व्यावहारिक रीति-नीतियोमें भी परिष्कारकी आवश्यकताको अनुभूत करते हुए उन्होंने एलान किया कि, तीर्थंकर परमात्माका श्रद्धालु-उनका भजनीक या पूजक-कोई भी हों वह अपना धर्मबंधु है, उसके साथ मतभेद रखना, ऊँच-नीचका व्यवहार रखना यह अत्यंत अयोग्य है । जैसे पंचमहाव्रत अंगीकरण पश्चात् नूतन दीक्षित साधु, सर्व साधु समाजमें एक समान अधिकार पाता है-समान व्यवहार पाता है, वैसे ही जैनधर्म स्वीकारने पर वे नूतन जैन भी सर्व जैनके समान बन जाते हैं । उनके
थ रोटी-बेटीके व्यवहारमें भेद रखना अनुचित ही है ।- “पारस्परिक एकतामें ही लाभ है और उसीमें शक्तिका रहस्य है । स्मरण रहें शास्त्राकारोंने श्री संघका पद बहुत उच्च किया है। श्री संघके सामने प्रत्येकको मस्तक झुका देना चाहिए ।४५
इसके अतिरिक्त शादी-ब्याहके फिजूल खर्च, दीक्षा-प्रतिष्ठादि धार्मिक प्रसंगो पर अथवा गुर्वादिके वंदनार्थ आये आगंतुक-स्वधर्मी भाइयोंके भोजन-प्रबन्धमें सादगी और फिजूल खर्च त्याग, प्रासंगिक लेन-देनमें आडंबरोंका त्याग-आदिके बारेमें आप बारबार अपने प्रवचनोंमें एवं ग्रन्थोंमें परामर्श देते रहे हैं । अमृतसरकी प्रतिष्ठावसर पर पू.श्री आत्मानंदजी म.सा.ने तजुर्बा किया कि, इन प्रसंगों पर ठाठ-बाटका यह तरीका साधनहीन भाइयोंके लिए सोचनीय परिस्थिति निर्मित कर सकता है । इससे धार्मिक उत्सवोंके समय स्वधर्मीके प्रबन्ध करनेमें वे स्वयंको अशक्त मानकर संकोच करेंगे, और उन लाभोंसे वंचित रह जायेंगे । अतः उन्होंने श्री संघको चेतावनी देते हुए कुछ प्रस्ताव पारित करवाये-यथा- “(१) श्री गुरुदेवोंके दर्शनार्थीके आतिथ्य सत्कार प्रेमपूर्वक दैनिक-सादा भोजनसे करना । (२) प्रतिष्ठादि अवसर पर तीन दिन (प्रतिदिन) केवल एक समय मिठाई परोसना-शेष सादा भोजन। (३) दीक्षादि प्रसंगों पर एक दिन, एक समय ही मिठाई-शेष सादा भोजन (४) साधुसाध्वीके स्वर्गवास अवसर पर सादा भोजन देना (५) प्रसंगोंमें रिश्तेदारोंसे लेन-देन प्रथा बंद करना । इसके अतिरिक्त विवाहादि प्रसंग पर खर्च कम करना-बरातियोंकी संख्या कम करना आदि ।
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