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प्रसार, पश्चिमी चकाचौंधके चक्करमें विवेक-शून्यता, आर्यसमाजी-ब्रह्मसमाजी-सीख आदिका भी जोरोंसे-प्रचंड़ प्रभावादिने समाजको दिग्भ्रांत कर दिया था । ऐसेमें एक कोनेसे एक भीड़-भंजकके करुणा सभर नयनोंसे अमृतधारा सदृश स्नेह- सरिता फूट पडनेको मानो लालायित हो रही थी । "He saw that true Jainism was lost in hoary antiquity. The indepedence of character, wide outlook beyond death, tolerance for all differences of opinion and thought, had all been smothered under the dust and storm, bigorty and persecution of the rules and the political struggle of the people for existence"३९ इन परिस्थितियोंका आकलन मुनिराज श्री चरण विजयजी म. के शब्दोंमें - “सर्व दर्शन निष्णात् श्रीआत्मारामजी म. सा. आ वीसमी सदीना एक समर्थ महान विप्लववादी तरीके मशहूर हता । अनेक वहेमो, गतानुगतिकता अने संकुचितताओ पोतपोताना अड्डाओ जमावीने समाजमां बेठा हता, अनेक अनिष्ट, रिवाजो- मान्यताओ-पोताना अचल आसनो बिछावीने बेठा हता; अनेक प्राणशोषक अने खराब रूढ़ियो पोतानु दैर्घ्य साम्राज्य निःशंकतया प्रवर्तावी रही हती, तेवा घोर अंधकार समयमां श्री आत्मारामजी म. कोईनी पण परवा कर्या सिवाय शुद्ध सनातन मार्गनी सिंहगर्जना करी-ए बधाने एकले हाथे विदारी नांख्यां; समाजमां पुनः नवचेतन रेडयुं । ए सिवाय समाजमां अनेक अंधाधुंधीनी कुप्रवृत्तिओ चाली रही हती, तेनो रदीओ सशास्त्र प्रमाणथी आपी जनताने पोताना कर्तव्य सन्मुख आणी ।"४०
आपके दीर्घ-दर्शी चक्षुपटल समक्ष जो चित्र अंकित था, उससे आपने स्पष्ट निश्चय कर लिया था कि अगर समाजको इन सबसे ऊपर उठाना है-उनकी दीन हीन हालातसे उनका उद्धार करना है। उनका यथार्थ स्वरूप उन्हें पुनर्माप्त करवाना है-गहरी निंदमें सोनेवाले इस समाजमें जागृति लानी है तो बिगुल बजाने होंगे ज्ञान गाथाओंके; ढोल पीटने होंगे, पुरातन विद्वद् अस्मिताओंके; गर्जना करनी होगी शिक्षा प्रचारप्रसार और उसके प्रताप-प्रभावकी । मंज़िल निश्चित हुई, मार्ग निर्धारित किया और लक्ष्य प्राप्ति हेतु उस गरीब निवाज़ने उस ओर कदम बढ़ाये । उनके इन्हीं खयालातका एहसास हमें श्री मथुरदासजीके वाणी विलासमें प्राप्त होते है-यथा-“शिक्षाकी उन्नतिको जैन समाजके अभ्युत्थानका प्रबल साधन समझते हुए ही प. पू. श्रीमद्विजयानंद सूरिजीम.के हृदयमें एक विशाल शिक्षण संस्था खोलनेकी भावना उदित हुई थी ..... शिक्षण संस्थायें
और विशाल सरस्वती भवनकी स्थापना, जैनधर्मके साहित्यिक, ऐतिहासिक तत्त्वोंकी खोज (संशोधन), उत्तमोत्तम ग्रन्थ-पत्र-पत्रिकायें आदिका प्रकाशन, जैन समाजकी कुरूढ़ियोंका निवारण, पारस्परिक संघका संगठन दृढ़ करना- आदि जैन समाजकी उन्नतिके लिए परमावश्यक बातें है । धीमान् एवं श्रीमान् इन बातोंकी ओर ध्यान देकर जैन समाजको सबल बनायेंगें ।"
श्री आत्मानंदजी म.सा. अपने इन विचारोंको प्रवाहित करके व्यवहारमें उसके प्रत्यक्षीकरणके लिए कृतनिश्चयी थे । सत्य-सुधारक इस महारथीका अंगद पाँच तत्कालीन विरोध- बवंडरों या समाजमेंसे होनेवाले सामान्य आंधी-तूफानोंसे चलित होनेवाले नहीं थे । उन्होंने विविध प्रसंगोपात अपनी प्रावचनीय उपदेशधारा, कमनीय कलमसे आविर्भूत जैन तत्त्वादर्श, अज्ञान तिमिर भास्कर, जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर, तत्त्व निर्णय प्रासादादि ग्रन्थालेखनादि विविध प्रचार-प्रसारके माध्यम द्वारा समाजके वहम अंधविश्वास-कुरूदि-परम्परायें-भ्रान्तिजन्य जड़तादिके उन्मूलन हेतु जनप्रवाहसे विरुद्ध दिशाकी ओर प्रचंड पुरुषार्थ प्रारम्भ किया । तत्कालीन जन मानस-प्रवाहको सूक्ष्म एवं पारदर्शी दृष्टिसे तीक्ष्ण विचारधारासे मूल्यांकित करनेवाले महामहिम-समयज्ञ संतने, अपने वज्रमय-कार्यदक्ष-दृढ़ मनोबलसे समाजको इन गूढ गह्वरोंसे उबारनेके लिए पथ प्रदर्शित किया और स्वयंके स्थितप्रज्ञ आचरणोंसे ऐसे समतारसको बहाया कि उन परंपरित रूढ़ियोंके विनाशकारी झंझावातसे उत्पन्न प्रकोप रूप विरोधके बादल अपने आप बिखर गये । इतना ही नहीं जन समाजने उनके सामने सर झुका दिया ।
"There was strength, firmness and gentleness, in his voice. He was regular in his habits, for sighted and liberal in views ..... He advised inter-dining and inter-cast mar
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