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________________ हुए आपने फरमाया कि, “किसी लाचार गरीब पर दया करके उसे खानेको भोजन या पहननेको वस्त्र देना-अनुकंपा दान कहलाता है । ऐसे दानका फल हमेशां शुभ होता है, किंतु.....प्रायः भिखारियोंका रूप अंदर कुछ और बाहर कुछ होता है, वे साधुके वेशमें धोखा-चालाकी करते हैं, अपने पास स्त्रियाँ रखते हैं, व्याभिचार करते हैं, मांस-मदिराका त्याग नहीं करते, चरस-गांजा आदि उडाते हैं । तरह तरहके स्वांग बनाकर लोगोंको लूटते हैं । चरित्रसे पतीत ऐसे लोगोंको भीख देना कुपात्र-दान है । इससे लाभके स्थान पर हानि होती है। ........ अगर कुछ देना हों तो विवेकपूर्वक तसल्ली करके अपने सामने खाना खिलायें ।५३ इस प्रकार अर्थप्राप्ति और दान एवं साधर्मिक (स्वधर्मी) वात्सल्य आदिको धर्मकरणीके रूपमें समझाते हुए जैनधर्मकी विश्व बंधुत्वकी भाननाका भी परिचय करवाया है, तो दूसरी ओर उन निर्धन या कम भाग्यवानोंको भी उनका जीवन-राह प्रदर्शित करते हुए नसीहत दी है कि अपने खर्चको हमेशां आमदनीसे कम रखो, सच्चाई और ईमानदारीसे जीवन-यापन करो उसीमें स्वमान व कल्याणका रहस्य है । शैक्षणिकः-प्राचीनकालसे आज तकके अनुभवोंको नज़र-पट पर उपस्थित करने पर तजुर्बा यही मिलता है कि, किसी भी देश-जाति-धर्मकी संस्कृति और सभ्यताकी रक्षा केवल उसके ऐतिहासिक, दार्शनिक और सामाजिकादि परिबलोंसे निसृत ज्ञानगंगाके प्रवाहोंसे ही मुमकिन है । जब वह ज्ञानगंगा रुख बदलती है, पतली पड़ती है-या सूख जाती है तब उसका अस्तित्व खतरेसे खाली नहीं । मुस्लिमोंके अत्यंत आक्रामक धर्मोन्मादका भी भारतीय संस्कृति द्वारा प्रतिरोध हो सका, यह केवल ज्ञानदशाके ही बल पर, आस्थाके स्थिरत्वसे हुआ । उनके द्वारा एक मंदिर भग्न होने पर अन्य अनेक मंदिरोंका निर्माण होता था, क्योंकि ज्ञान-भास्करका आलोक फैला हुआ था-आस्था अड़ोल थी । किन्तु, निरन्तर उन आक्रमणोंके कारण समस्त भारतवर्षमें राजकीय अव्यवस्था हो गई । साथ ही शासकोंकी स्वार्थांधता-क्रूरता-हवसकी लालसादिके कारण नैतिक पतन और परस्परकी ईर्ष्या-द्वेष-विलासिताके व्यामोहसे व्याप्त वातावरणमें आर्थिक असंतुलनका व्याप अपनी चरमसीमा पर पहुंचा था । ऐसे अवसरोमें ज्ञान-विज्ञान या कला-कौशलका पोषण ठप होना स्वाभाविक था । सर्वका ध्यान स्व-सलामतीकी ओर केन्द्रित था । सर्वत्र जानमालकी सुरक्षा-जीवनयापनके साधन जुटानेकी समस्या, सामाजिक मान-प्रतिष्ठादिके संरक्षणादिके लिए प्रत्येक व्यक्ति संघर्षरत था, और उनमें ही स्वयंकी तन-मन-धनकी समस्त शक्तियाँ व्यय हो रही थीं । ऐसेमें ज्ञान-विज्ञान-कला या धर्म-ध्यानकी ओर दृष्टिक्षेप करना या उसका खयाल आना भी दुरूह था । लेकिन...... ___ समय सतत परिवर्तनशील होता है । कालचक्र अरहट्ट सदृश ऊपरसे नीचे और नीचेसे ऊपरकी ओर चक्रित होता रहता है । अतः विश्वके उस शाश्वत सत्यानुसार राजकीय परिस्थितियोंने पलटा खाया, जिसका असर सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक और आर्थिक हालातों पर हुआ । एक नूतन लहर आयी और उन उत्तापोंसे उबारनेवाले राहकी अलप-झलप दिखा गई । इससे धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्रोंमें भी चैतन्यका संचार हुआ, सुषुप्तावस्थाका त्याग करके कई धर्मनेताओंने भी समाजकी अगवानी की । वे अपनी सुदूरदर्शी पैनी दृष्टिसे अनुभव कर रहे थे-समाजकी संस्कारिता और धार्मिकताकी रीढ़ केवल ज्ञानालंबनसे ही वज्रतल्य बनती है-जिससे जनजीवनसे धर्मकी अव्यवच्छिन्नता स्थायी बनती है। “विद्ययाऽमृतमश्नुते" अथवा “सा विद्या या विमुक्तये"- अर्थात् विद्यासे अमरता प्राप्त होती है अथवा विद्या वही है जो हमें विविध अनुचित बंधनोंसे विशेष रूपमें मुक्ति दिलाती है । उपनिषदके इन वाक्योंसे विद्याका स्थान जनजीवनमें किस प्रकारसे उपयुक्तता रखता है-यह स्पष्ट ही है । विद्यासे ही विवेक जागृत होता है । मनुष्यको पशुओंकी तुल्यतासे ऊपर उठानेवाली ताक़त-शिक्षा शक्ति ही है । सभ्य मानवसमाजका मेरूदंड बननेकी क्षमता सुयोग्य शिक्षा-स्तंभमें ही निहित है । - जैन समाजकी ज्ञानके प्रति लापरवाही; विद्यार्जनमें प्रमाद-आलस्य-अनुद्यमको देखकर आचार्य प्रवरश्री आत्मानंदजीकी तड़पती आत्मासे पुकार उठ पड़ती थी | अहमदाबादके श्री संघ समक्ष एक बार अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए आपने फर्माया था-“यहाँ संघमें हर प्रकारकी सुख संपन्नता है, जन संख्या भी पर्याप्त (107 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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