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उपर तो एमनो अनहद उपकार हतो । जैन दर्शननी आसपास व्हेम अने आक्षेपोना घन बादल घेराई रया हता। साचा पंच महाव्रतधारी श्रमणोना सिंहनाद संभळाता बंध थया हता । बराबर ए ज बखते आ पंजाबी सिंहे दर्शन शुद्धि अने चारित्र शुद्धिनी बाड़ गर्जावी । मिथ्यात्व अने होंग, प्रपंच अने कृत्रिमता एकी साथे हाली उठ्या ।".
जैन समाजके धार्मिक-दार्शनिक, सामाजिक-व्यावहारिक-आर्थिक, शैक्षणिक-साहित्यिक-ऐतिहासिक-सर्व क्षेत्रोंके विकासके लिए आपने आजीवन अनवरत आयास किये । सर्वको अवलोकित किया, सर्वका अनुभव और अध्ययन किया-पर्यवेक्षण किया एवं प्रगतिके प्रबन्ध भी प्रदर्शित किये । उन्होंने एक सुविज्ञ वैद्य सदृश जैन समाजकी नाड़ परखी, रोगका अनुमान-अनुभव और निदान किया और औषधि भी निश्चित कर दी। जैनधर्मकी स्वस्थताके लिए अर्थात् जैनधर्मके संस्कारोंको सुदृढ़ और प्रौढ़ बनानेके लिए अपनी समस्त शक्ति आज़मा दी, फलतः जैन समाजकी गगनचुंबी कीर्ति पताका मुक्त मनसे लहराने लगी । धार्मिक-धार्मिक क्षेत्रान्तर्गत सद्धर्मकी प्ररूपणा, जैनधर्मकी अवहेलना करनेवाले जैनेतर वादियोंका खंडन करते हुए उन्हें निरुत्तर करना, मूर्तिपूजाके प्राचीन आदर्शोको पुनर्जीवित करके श्री जिन प्रतिमा, श्री जिनमंदिर निर्माण-जीर्णोद्धार-संरक्षण; जैनधर्मके महत्त्वको सिद्ध करते हुए, उसके प्रचार-प्रसारको प्रवर्धित करके जैन सिद्धान्तोंके प्रचारका व्याप विश्व-स्तरीय बनाना, साधु और श्रावक द्वारा आचरणीय धर्म स्वरूपका निरूपण आदिको समन्वित कर सकते हैं ।
___ जो धर्म सत् हों वह सद्धर्म अर्थात् जो शाश्वत हों वह सद्धर्म कहलाता है जिसमें अहिंसाअमृषा-अस्तेय-अपरिग्रहादि व्रत-नियमोंका पालन, रत्नत्रयीकी आराधना-साधना और तत्त्वत्रयीके प्रति सम्यक् श्रद्धाका समन्वय किया जाता है । विशेष रूपमें “याज्ञिकी हिंसा के समर्थक वैदिकादि धर्म, मूर्तिपूजा विरोधी स्थानकवासी, आर्यसमाजी, थियोसोफिस्टादि पंथः उत्सूत्र प्ररूपक दिगम्बर-बौद्धादि मतवालोंके प्रति उनका आक्रोश भड़क उठा था -“श्रीमान आत्मारामजी महाराज वादी हता । जेओओ आर्यसमाजीओ साथे, वेदांतीओ साथे तेमज स्थानकवासीओ साथे वाद करीने अनेकने निरुत्तर बनाव्या हता..... ते कालमां 'वादी वैताल' नी पदवीने लायक हता ।२२. उनके साथ वाद-प्रतिवाद और व्यक्तिगत चर्चा के रूपमें अनेक प्रकारसे युक्तियुक्त विचारणा एवं आत्म कल्याणकारी शुद्ध धर्माचरणकी प्ररूपणा करते हुए सत्य धर्मकी ओर आनेके लिए तथा सन्मार्गीय बननेके लिए निमंत्रण देते हुए अपने 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' ग्रन्थका पर्यवसान करते हुए आप लिखते हैं, “शुद्ध मार्ग गवेषक और सम्यक्त्वाभिलाषी प्राणियोंका मुख्य लक्षण यही है कि, शुद्ध देव-गुरु-धर्मको पिछानके उन शुद्ध देवादिका अंगीकरण और अशुद्ध देवादिका त्याग करना चाहिए ।"
आपके प्रत्येक ग्रन्थ-प्रत्येक प्रवचन-आपके वाणी-वर्तनसे-निरंतर बहते रहते हैं सद्धर्मकी प्ररूपणाके नीर और असद्धर्मके प्रति अप्रसन्नता-अमर्षकी आँधी । आपने अनेक व्यक्तियोंसे विचार विमर्श-चर्चासभायें करके अनेकोंके दिलमें सत्य-शुद्ध धर्मकी ज्योत प्रज्ज्वलित की थी । जोधपुरमें स्वामी दयानंदजी और आचार्य प्रवरश्रीके मध्य चर्चा-सभाका आयोजन भी इसके उपलक्ष्यमें ही किया गया था । (यद्यपि श्री दयानंदजीके निधन हो जानेके कारण यह आयोजन साकार न हो सका ।। इस प्रकारकी विभिन्न चर्चाओंका ब्यौरा इस शोध प्रबन्धके अन्य पर्योंमें विस्तृत रूपमें दिया गया है ।
श्री जिनप्रतिमा और श्री जिनमंदिरके समर्थन और उनके निर्माण या जीर्णोद्धारकी प्ररूपणा करते हुए तो उन्होंने जानकी बाजी लगा दी थी; स्वयंके सुख शांति या अन्य भयंकर खतरोंकी भी परवाह किये बिना ही दिन-रात एक किये थे । “ते सर्व पंजाबना जुदा जुदा भागोमां अड़ग निश्चयथी घुम्या अने थोड़ा समयमा प्रबल विरोधनो झंझावात जोरशोरथी चालू, छतां नवं क्षेत्र तैयार करी शक्या..... ज्यां स्थानकवासी अने आर्य-समाजिस्टोना भेरीनादो अहर्निश मुर्तिपूजा सामे संभळाइ रयां छे एवा क्षेत्रमा पुनः मूर्तिपूजननां मंडाण काँ, मूर्तिपूजा प्रत्ये प्रेम जगाइयो, भावपूर्वक पूजा करवाने तत्पर श्रद्धालु समाज सरजाव्यो ।"......२३
श्रावक-श्राविकाके कर्तव्यके रूपमें श्री जिन प्रतिमा-श्री जिनमंदिर निर्माण, जीर्णोद्धार एवं संरक्षण
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