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परमात्माकी अनेकविध पूजा- सेवादिके विधान; तथा साधु-साध्वीजीके लिए भी परमात्मा-दर्शन, भावपूजा-संवर्धन एवं संरक्षणके लिए प्रेरणा और प्रयत्न-आदिके शास्त्रोक्त संदर्भ देकर उस विधिमार्गके समर्थनमें बार-बार प्रवचन द्वारा मार्गदर्शन किया। साथ ही तविषयक पुष्टिके लिए साहित्य - सेवान्तर्गत अज्ञान तिमिर भास्कर, चिकागो प्रश्नोत्तर, जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर, तत्त्व निर्णय प्रासादादि अपने प्रमुख ग्रन्थोंमें इसका विशद विवेचन किया है; और 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' ग्रन्थ तो पूर्णरूपेण मूर्तिपूजाके समर्थन संदर्भोका मानो खजाना ही है । सम्पूर्ण ग्रन्थमें मूर्तिपूजाके लाभ, प्रकार, अधिकारी, शास्त्रीय मान्यतायें और परापूर्वता-प्राचीनतादिका निरूपण आगमिक व शास्त्रीय ग्रन्थाधारित ससंदर्भ स्पष्ट किये हैं । श्री कुंडलाकरजीके शब्दोमें -“पंजाबमा बंध थएलां जिनालयोनां द्वार खोलावी पंजाबने पुनः वीर भूमिर्नु नंदनवन बनाव्युं छे.ते ज तेमनी शक्तिनुं माप छे."२४. इसके साथ ही डॉ. अमरनाथ औदिवजीके भाव भी पठनीय है-'Before the advent of Atmaramji there was a strong tide against 'Murti Puja'... Murti Puja as a means of self-realisation had been almost lost sight of by majority of Jains in the Punjab. Besides the Christian missionaries the Brahma Samaj and the Arya Samaj were working against the time honoured idol worship..... Atmaramji realised the danger and fully appreciating the worth of Murti Puja rebelled against the then cutrent tide..... To educate public opinion on the point of idol worship the toured through the Punjab, Marwar, Mewar, Gujarat and Kathiawar, and carried on a vigrous Propaganda in its favour by vigoros preaching".. “जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर” ग्रन्थमें मूर्तिपूजाका ध्येय स्पष्ट करते हुए आपने सुंदर तर्क पेश किया है-“प्रतिमा बिना भगवंतका स्वरूप स्मरण नहीं हो सकता है ।..... हम प्रतिमाको पत्थर मानकर नहीं पूजते हैं, किन्तु तिस प्रतिमा द्वारा साक्षात् तीर्थंकर भगवंतकी पूजा-स्तुति करते हैं । जैसे सुंदर स्त्रीकी तसवीर देखनेसे असल स्त्रीका स्मरण होता है, तैसे ही जिनप्रतिमाके देखनेसे भक्तोंको असली तीर्थंकरका रूप स्मरण होकर जिनभक्ति करनेसे कल्याण होता
इसके अतिरिक्त द्रव्य और भावपूजाका स्वरूप, द्रव्य पूजामें हिंसा-अहिंसा- कर्मक्षयका स्वरूप, संप्रतिकुमारपालादि राजाओंके श्री जिनमंदिर-श्री जिनप्रतिमादिके निर्माण-जीर्णोद्धारोंका वर्णन आदि विस्तृत विवेचना करते हुए मूर्तिपूजाको समाजमें परापूर्व-परम्परित-गौरवान्वित स्थान प्राप्त करवाया । अगर उन्होंने यह कार्य न किया होता तो विश्वमें मूर्तिपूजक जैनोंका स्थान कैसा होता उसकी कल्पना भी मुश्किल है ! श्री जिनमंदिर निर्माणकी आवश्यकताको स्वीकार करते हुए तद्विषयक पागलपनको अतिरेकको हानिकारक माना है -“जिस गांवके लोग धन हीन होवे, जिनमंदिर न बना सकें, और जिनमार्गके भक्त होवे, तिस जगे अवश्य जिनमंदिर कराना चाहिए ।१२७. इस प्रकार किन श्रावकोंने कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे जिनमंदिर-प्रतिमा निर्माण करवाये, कैसे पूजा की-इसकी प्ररूपणा करते हुए जैन समाजके श्रावकोको मूर्तिपूजाकी आवश्यकता समझायी। - “नभचुंबी देवालय जो हैं नगर नगर निर्माण, .
तेरे सत्कार्योंके ये हैं साक्षीरूप प्रमाण ॥" ___ इस प्रकार समस्त पंजाबी जैन समाजकी काया पलट करनेके साथ साथ आपने राजस्थानमें विचरण करके जोधपुरादि ग्राम-नगरोंके अनेक ओसवाल- पोरवालोंको उनके मूल स्वधर्म-जो श्री रत्नशेखर सूरिम.सा.ने उन्हें सिखाया था-उस मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैनधर्ममें स्थिर किये । “आज मारवाडके शहरोंमें ही नहीं, पर छोटे-बड़े ग्रामोंमें भी जैन मूर्तिपूजक समाज दृष्टिगोचर हो रही है यह आपश्रीके जबरदस्त उपदेशका ही प्रभाव है ।।२८. मारवाड़-मेवाड़- गुजरातादिके अनेक जिनमंदिर मुस्लिम युगमें भग्न हुए थे या काल प्रभावसे जीर्ण हुए थे, उनके जीर्णोद्धारकी प्रेरणा करके उनकी भी कायापलट की। “जिनबिम्बका पूजन मूर्तिपूजा है, और मूर्तिपूजा पंच महाव्रतका खंडन होने; कारणभूत है-यह जो भ्रम फैला हुआ था, सो आपने दूर करके जिनबिम्बका पूजन मूर्तिपूजा नहीं है, ध्येय पूजा है-यह बात आपने श्रावकोंको समझा दी । आपने कई चैत्यालयोंका
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