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'अपरिग्रह' व्रत, अथवा परिग्रहके परिमाणका नियम कर लेनेसे व्यक्तिको संतोष गुणकी प्राप्ति होती है, जिससे मुड़ीवाद और गरीबीकी खाई समतल की जा सकती हैं; तो 'अहिंसा' व्रत (प्राणतिपात विरमण व्रत) के स्थूलसे या सर्वथा पालनसे जीवोंको निर्भयता मिलेगी । परिणामतः विश्व-युद्धके भयानक, त्रासदायक स्वप्न भी भूला दिये जा सकते हैं। विश्वकी अति विकट और उलझी हुई समस्या-जनसंख्या वृद्धि और भयंकर जीवलेवा बिमारियोंमें ढाल बनकर संरक्षण दे सकता है-वीर्यरक्षाकारी, शक्ति प्रदाता-ब्रह्मचर्य पालनका व्रत-नियम ।
इस प्रकार अनेकानेक नियम-सिद्धान्त-अनुष्ठान, विचारधारायें और उच्चादोंके प्रवर्तनसे कोई भी व्यक्ति जनसे जैन, और जैनसे जिन बन सकती है । इन्हीं विषयोंकी चर्चा-विचारणाओंको आचार्य प्रवरश्रीने, गीतार्थ पूर्वाचार्योंके शास्त्राधार रूप संबलके सहारे, विशिष्ट गुणकारी और स्वयंकी औपपातिक बुद्धि प्रतिभाके बल पर, अद्यतन रूपमें विश्वके जन समाजके लाभार्थ प्रस्तुत किया-विचारसे-(साहित्य रूपमें), वाणीसे (प्रवचन रूपमें), वर्तनसे (आचरण रूपमें) | जैन समाज पर ऋण -“एक छत्र नायक हों गुरुवर, जैन संघके प्राण ।
यशसे पूरित हुआ पंचनद, गुर्जर - राजस्थान ।” पंचनदके ये महान ज्योतिर्धर जिसने समस्त संसारको अपनी करुणासिक्त भावनाओंसे प्रभावित किया था, उनकी जीवन-ज्योत जहाँसे प्रज्ज्वलित हुई, उस ज्ञान दीपक-ज्योत प्रदाता, जैनधर्म और जैन धर्मीको वे कैसे विस्मृत कर सकते हैं? उनके रोमरोममें-नसनसमें-खूनकी बूंदबूंदमें जैनत्वकी ज्वलंतता झलक रही थी।
“भक्तिव्याजवश दिया गया यदि, किया हलाहल पान ।
दातारका उपकार चुकाया, दे अमृतका दान ॥" उनके विचारसे गुजरात और सौराष्ट्रकी संस्कारिता, धर्मप्रेम, भक्तिभाव, संस्कृति और समृद्धि एवं वीरभूमि पंजाबकी वीरता-दृढ़ता-सरलता-धर्मप्रेमादि गुणों द्वारा ही जैनधर्म एवं जैनसमाजका उत्कर्ष व उद्धार मुमकिन बन सकता है, तथा क्रान्ति और शान्ति, यांत्रिक और मांत्रिक, बौद्धिक और आस्थिक-इन विरोधाभासी शक्तियोंके समन्वयके बल पर ही जैन शासनका और उसके मूल सिद्धान्त-अहिंसा-सत्यवादितादिका जयजयकार संभवित है। उनके जीवनमें दृष्टिपात करनेसे उपलब्ध होता है, विचार-वाणी-वर्तनसे ओजस्वी क्रान्तिमय जीवन, जिसके भीतरमें अंतर्धान है शांतिकी तीव्र साधना ।
____एक युग प्रवर्तककी हैसियतसे आपने सद्देव-सद्गुरु-सत्शास्त्रकी पूजा-सेवा-अध्ययन तथा अध्यापनका प्रबन्ध, जिनालय-उपाश्रय और पाठशालाओं द्वारा करके जैनसमाजके साधकोंमें सम्यक् दर्शन-सम्यक् ज्ञानसम्यक् चारित्रका संपादन-संमार्जन-संवर्धन करवाकर उनके समकितकी शुद्धि करवायी और आत्म कल्याणके मार्गको प्रशस्त किया। आपकी ही कृपासे तत्कालीन समाजमें अर्हन् मतके प्रचार और प्रसारने, प्रभविष्णुताको प्राप्त की ।
ऐसा प्रतीत होता है कि, जिनशासनका जो अनुग्रह श्रीआत्मानंदजीकी आत्म-कल्याणकारी राहोंमें सनद्ध होनेके लिए प्रेरणा स्रोत बना था, मानों उन्होंने उसकी एवजीके रूपमें-उसकी प्रतिपूर्तिके उपाय रूप ही ये सर्व सेवाकार्य न किया हों ! अगर उन्हें परमोपकारी पालक जोधाशाहके घर जैन संतोंका संयोग न हुआ होताः अगर उन्होंने जैन शास्त्रोंका अध्ययन न किया होताः एकमात्र सत्यप्रेम-पूजारी बनकर जैनधर्मके प्रतिमा पूजन स्वरूपको उद्घाटित न किया होता, तो यह कीर्ति कीरिट उनके व्यक्तित्वको कैसे भूषित कर सकता! और आत्माको कर्मक्षयकी राहों पर, कर्म-मुक्ति मंज़िल प्रति हुई उनकी विजय यात्रा कैसे संभवित बन सकती? अतः हमें प्रतीत होता है कि, एक उत्तम-कृतज्ञ आत्माके स्वामी, श्रीआत्मानंदजी म. मानो उस ऋणसे उऋण होनेके लिए ही कटिबद्ध न हुए हों, ऐसे ही जैनधर्मकी सर्वांगीण उन्नतिके लिए जीवनकी प्रत्येक पलको खर्च करके अपनी छोटी-सी जिंदगानीमें अद्भूत करतब दिखा गये । “जैन समाज
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