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________________ असंख्य काल तक पथ प्रदर्शन करके अनागत आपत्तिका सामना करनेका संबल प्रदान करते हुए आत्मिक धर्मोंकी अनूठी सामग्रियोंसे सम्पन्न बनाती है । संस्कृति वह होती है जो आचार-विचारोंकी, वाणी-वर्तनकी, तन-मनकी एकरूपता साधनेमें सहयोगी हों; जो जीवके स्वात्म व्यक्तित्वको विश्वके प्राणी-मात्रमें विलीन करने में या समष्टिमें समाहित करनेमें तन्मय बना दें-जैसे भक्त, भगवंत-भक्तिमें तन्मयता प्राप्त करते हैं । साथ ही 'अप्पा सो परमण्या के विशद दृष्टिकोणको आत्मसात करनेका गौरव प्रदान करें । शाश्वत आत्माका परिचय करानेवाली संस्कृति, जड़-भौतिक-सांसारिक सभ्यताको अपने रंगमें रंगकर सभ्यताके सुनहरे आलंबनोंका सत्य स्वरूप स्पष्ट करके आत्म कल्याणको अखत्यार करनेका आहवान करती है । अतः मानवको अंतर्मुखी बनानेवाले इस संस्कृति सुधारको ही आध्यात्मिक अथवा पराविद्याका स्वरूप माना जा सकता है । संसारयात्राको सरलता बक्षनेवाली सभ्यता होती हैं, जबकि संस्कृति-दार्शनिक चिन्तन और आध्यात्मिक आदर्शों द्वारा धर्म एवं आत्माका पूर्णत्व और मोक्षादिका अन्वीक्षण करती है । अतएव हम अनुभव कर सकते हैं कि, बिना संस्कृतिकी सभ्यता 'बिन बादल बरखा' सदृश अथवा 'निष्पाण मृतदेह' समान हैं; क्योंकि आत्माकी तरह अमर संस्कृति है और देहकी भाँति परिवर्तनशील सभ्यता है । एक संस्कृतिमें विभिन्न समयमें विभिन्न प्रकृति अनुसार सभ्यताका वैविध्य असंभव नहीं 1 संस्कृति रूप फुलवारी सात्त्विक गुणोपेत उत्तम सभ्यता रूप फूलोंसे शोभायमान बन सकती है। लेकिन अति उत्तम प्रकारकी भौतिकतासे संवारी गयी सभ्यता, संसार युक्त सांस्कृतिक सुवासके बिना व्यर्थ ही मानी जाती है-प्रायः नुकशानकारी भी हो सकती है । ऐसी सुवासित-चिरंजीव संस्कृतिको जीवंत रखनेवाले होते हैं दार्शनिक उपदेशक धर्मगुरु (१) समाज सुधारक-साहित्यकार-युग निर्माता (२) एवं सुचारू अर्थ व्यवस्थापक तथा राज्य व्यवस्थापक राजपुरुष (३) विविधलक्षी कला नियोजकादि । जो संस्कृति केवल ऋद्धि-समृद्धिको ही प्राधान्य देती हैं (जैसी पाश्चात्य संस्कृति) वह तूफानी समंदरमे बिना खेवैयाकी नाव सदृश आश्रितोंके साथ स्वयंकी सुरक्षाको खो देती है। इसे संस्कृति नहीं सभ्यताकी विकृति ही कह सकते हैं | सुसंस्कृतिका सबक है उत्तमोत्तम त्यागकी प्रधानता (जैसे पौर्वात्य संस्कृति, पराकाष्ठाका परित्याग ही, आत्माकी अंतर्मुखताका उद्घाटन करके उसे परमात्मा स्वरूपकी प्राप्तिमें सहयोगी बनता है । ऐसे प्रगतिशील सभ्यता युक्त उत्तम संस्कृतिका समस्त विश्वमें प्रचार और प्रसार होनेसे भौतिक जड़वादकी जड़ें निर्मूल होकर विश्वको सर्जनात्मक, क्रियाशील, उत्तम आदर्श अध्यात्मकी प्राप्ति होगी और अशांति-भय-आतंकके घने बादलोंमें घिरि मानवताको इस आदित्यका आगमन पुनः प्रकाशित करके चमकायेगा। ऐसे उपदेशक साधुके विशिष्ट लक्षणोंको स्पष्ट करते हुए श्रीआत्मानंदजी म. लिखते हैं, “धन्य धर्मरूपी धनके योग्य होनेसे मध्यस्थ, स्वपक्ष-परपक्ष में राग-द्वेष रहित, सत् भूतवादी-ऐसा जो होवे सो देशना-धर्मकथा करें।"१९ इन सुगुरुओंसे आत्मबोध प्राप्त होता है, समस्त जीवोंके प्रति मैत्री-प्रमोद-करुणादि भावोंका संचार हृदयकमलमें होनेसे प्रफुल्लितता छा जाती है । सच्चे अर्थमें इसी मानवतायुक्त जीवन मानव-कल्याण और विश्व-बंधुत्वकी नींव है । इस आत्मबोधकी तत्कालीन और वर्तमानकालीन युगमें क्या आवश्यकता है, इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “जिस प्राणीकुं आत्मबोध नहीं हुआ है, सो प्राणी यद्यपि मनुष्य देहवाला होने पर भी, शास्त्रकारज्ञानी पुरुष उन्हें शृंगपूंछसे रहित पशु ही कहते हैं। क्योंकि उसकी आहार, निद्रा, भय मैथुन आदि क्रिया पशु तुल्य ही होती है। जिस प्राणीकुं तत्त्ववृत्तिसे आत्मबोध हो जाता है, तिससे सिद्धिगतिकी प्राप्ति दूर नहीं है। इस आत्मबोधकी प्राप्ति द्वारा मोक्षमार्ग पर एक-एक कदम बढ़ाते हुए इहलौकिक-पारलौकिक परंपरित सिद्धिगतिको स्वाधीन करनेके लिए सक्रिय होनेकी प्रेरणा और प्ररूपणा ही श्री जिनेश्वर भ.की प्रसादी है। उसके लिए मार्ग रूप आवश्यक आचरणा मुख्य रूपसे पांच प्रकारोमें विभाजित नियम-व्रत. हैं । इन्हींसे वर्तमान विश्वकी सर्व समस्याओंका समाधान-संपूर्ण सुख, शांति, समृद्धि और सिद्धियाँ प्राप्तव्य हैं-जैसे दस . Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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