________________
स्वार्थके लिए दूसरोंको कष्ट न पहुँचाना ही अहिंसा है ..... जैनधर्मके प्रवर्तकोंने अहिंसाके अंग-प्रत्यंगका अतिसूक्ष्म
और अति विशद विवेचन किया है; और यह सिद्ध किया है कि अहिंसाका परिपालन सभी परिस्थितियोंमेंक्या धार्मिक क्या सामाजिक, क्या राजनैतिक एवं राष्ट्रीय-किया जा सकता है, उसमें कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती ..... जैनधर्मके सभी सिद्धान्त-आचार-विचार अहिंसा तत्त्वके ऊपर रचे गये हैं ..... जैनधर्मका अहिंसा तत्त्व स्थूल जगतके परे सूक्ष्म जगत तक जाता है .... इस धर्मके प्रवर्तकोंने इसका कथन मात्र ही नहीं किया है, बल्कि अपने जीवनमें व्यवहार्य एवं आचरणीय बनाया है । ..... सर्वदा “सत्त्वेषु मैत्री"की उत्कृष्ट भावनाको ध्यानमें रखनेवाले महाव्रतधारी साधु ही “अहिंसा का पूर्णतः पालन कर सकते हैं ।१५।
इस अहिंसा रूप प्राणीमैत्रीको राष्ट्रीय-राजनैतिक-विश्वोपकारक सिद्ध करते हुए लिखते हैं . “अहिंसा राष्ट्रकी पराधीनतामें कभी कारणभूत नहीं हो सकती, क्योंकि पराधीनताके साथ अहिंसाकी व्याप्ति नहीं है । प्रत्युत, अकुशल एवं अकर्मण्य राष्ट्रीय कर्मचारियोंसे देश परतंत्र हो जाता है ।१६ “गृहस्थ राष्ट्रीय एवं राजनैतिक कार्योंको अहिंसक रहकर भी भली प्रकार कर सकता है । बल्कि अहिंसक मनुष्य नीति एवं दक्षताके साथ कार्य करनेमें समर्थ होगा, जबकि हिंसक, उन कार्योंको अपने स्वार्थ एवं कुटिलतासे करेगा । अहिंसक सर्वदा प्रजाजनके हितके लिए अपने स्वार्थीको ठुकरायेगा, दुष्टोंको निग्रह करेगा, साधुजनों पर अनुग्रह करेगा । ऐसी हालतमें अहिंसाको भीरुता-कायरताकी जननी कहना नितान्त गलत है ।१७
इस भावनाको आचार और विचारसे प्रचारित करनेवाले जैनसाधु प्राणीमात्रके मित्र हैं, और विश्वमें अनायास ही सम्मानित स्थान प्राप्त करते हैं । लेकिन तत्कालीन समाजकी दयनीय स्थिति, जो विशेषतः अज्ञानतासे ही प्रकट होकर पनपी और प्रसारित हुई, परिणामतः अनेक साधु स्वांगमें भटकते फकीर बाबाओं
और चिलम-गांजेकी महफिलकी मौजें माननेवाले महंतादिकी पापलीलाओंको एवं उनसे फैलायी गई अव्यवस्थाको उद्घाटित करके साधुओंके स्वरूपको स्पष्ट करते हैं . “साधु उसीको होना चाहिए जो तन मात्र वस्त्र और भूख मात्र अन्न लें, शील पालें और लोगोंको हिंसा-झूठ-चोरी, कपट-दंभ-छल अन्यायी व्यापार, अनुचित प्रवृत्तियाँ आदिसे उपदेश द्वारा बचायें, नहीं तो साधु होनेसे लाभ नहीं । मानव-कल्याण और विश्व-बंधुत्व :-पंचामृत भावनाके अंतर्गत, मानव कल्याण और विश्व बंधुत्वकी भावनाको क्रियान्वित करने हेतु उन्होंने शताब्दी पूर्व अमरिकाके शहर चिकागोमें आयोजित 'विश्व धर्म परिषद में श्रीयुत् वीरचंदजी गांधीको अपने प्रतिनिधिके रूपमें प्रेषित किये; जिन्होंने वहाँ मानव मात्रके जीवनोपयोगी-वैयक्तिक, नैतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रगतिके अंतर्गत सभ्यताकी प्रगति और संस्कृतिमें सुधार करनेवाली मानवकी सुषुप्त कार्यशक्तियोंकी जागृतिकी प्रक्रिया प्रदान करनेवाले विचार सैद्धान्तिक रूपमें प्रस्तुत किये हैं ।
शारीरिक विकारोंकी द्योतक सभ्यता मानवको भौतिकताकी चकार्बोध दर्शाती है । व्यक्तिको पूर्णतया बहिर्मुख बना देती है, अतः उसे भौतिक या अपराविद्या कहा जा सकता है। किन्तु इसे स्वच्छ-शांतसुष्ठु बनानेवाली प्रगतिकारक सभ्यताके अंतर्गत आर्थिक, सामाजिक, नैतिक-राजनैतिक, वैज्ञानिक-कलात्मक-शिल्प स्थापत्य युक्त विविध कला-कौशलादिमें स्व-पर हितार्थ, नित्य नूतन आविष्कार और परिष्कार, संशोधन और सुधार, धार्मिक सिद्धान्तोंकी स्थिरता स्थापित करते हुए सात्विक गुणोंकी समृद्धिके लिए क्षमाशीलता-नम्रताविनयशीलता-परोपकारिता-‘स्वस्थ तनमें स्वस्थ मन'को समझानेवाली शैक्षणिकता आदिको समाविष्ट किया जा सकता है, जिससे उत्तम सुखाकारी युक्त उच्च जीवन स्तरकी प्राप्तिकी संभावना उद्भावित हों । ऐसी सभ्यतापूर्वक, सहिष्णुतासे समन्वय साधित करते हुए प्रत्येक सद्धर्मके प्रति सद्भाव (जिसकी जड़ जैनोंके अनेकान्तवादमें अंतर्निहित है) और उसी शृंखलाको विस्तीर्ण करते हुए अध्यात्मकी, आत्मीय (या आत्मिक) ज्ञानकी, और परंपरासे शाश्वत सुखकी प्राप्ति-इसे ही संस्कृतिमें सुधार रूप माना जा सकता है ।
संस्कृतिसे मानवकी आत्माका उत्थान-उत्कर्ष-अभ्युदय प्राप्त होता है, क्योंकि संस्कृति ही चिरंजीव होती है-सभ्यता परिवर्तनशील | अनेक सुसंस्कारोंसे सुसज्जित संस्कृति मानव चेतनाको पुष्ट करती है, और
(96)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org