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________________ जागृतिके लिए शिक्षा-प्रचार, संगठन आदि कार्योंके लिए समाजका पथ प्रदर्शन किया । १३ श्री आत्मानंदजीम.सा.ने स्वयं भी ज्ञान-दानके लिए जीवनके अंतिम समय तक अनवरंत साहित्य सृजन-कार्यको सक्रिय रूपमें जारी रखा । साथमें इस साहित्य सर्जनका माध्यम भी हिन्दी रखा । उन दिनों हिन्दी-खडीबोलीका आकार-रूप सज्जादि-नवसर्जनको प्राप्त हो रहा था । उन्होंने खड़ी बोली-हिन्दीके गद्य रूपकी प्रमार्जनामें अपना विशिष्ट योगदान दिया था । यद्यपि, उन दिनोंमें हिन्दीको राष्ट्रभाषाका बहुमान नहीं मिला था, लेकिन, हिन्दी भाषियोंकी बहुलताका अनुभव करते हुए उन्होंने हिन्दीमें रचना करनी उपयुक्त समझी, जो शीघ्र ही लोकभोग्य हो सके । इस प्रकार राष्ट्रीय एकताके बीज उनके जीवन व्यवहारमें भी हमें प्राप्त होते हैं । उनके प्रवचनोंका सूर भी यही था, “भिन्न भिन्न जातियों और संप्रदाय सब एक ही वाटिकाके फूल हैं। कोई कारण नहीं कि उनके पारस्परिक संबंध विच्छिन्न रहें । याद रखो, आप तभी बलवान और दृढ़ बनोगे जब व्यर्थ मतभेद दूर करके परस्पर संगठन व ऐक्य स्थापित करोगे..... पारस्परिक एकतामें लाभ है और उसीमें शक्तिका रहस्य हैं । अतः हम अनुभव कर सकते हैं कि श्री आत्मानंदजीम.सा. केवल धार्मिक नेता ही नहीं लेकिन समाजके उद्धारक और सुधारकोंके अग्रदूत थे, तो राष्ट्रीय एकताके उद्घोषक भी थे । प्राणी मैत्री-“अप्पा सो परमप्पा" विश्वके समस्त जीव जगतके प्रति आत्मीयताका भाव, निःस्वार्थपूर्ण सकल जीवराशिके प्रति कल्याण कामना ही प्राणी-मैत्री है । ऐसी 'प्राणी-मैत्री'के भाव केवल विविध त्रिविध-संपूर्ण रूपेण-अहिंसामें समाहित है | “मित्ती मे सव्व भूएसु" की भावनाको चरितार्थ करके एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके जीवोंकी मैत्री-पूर्ण रक्षा करनेवाले जैन सिद्धान्तको विश्व व्यापक बनाने और सर्व जीवोंको अभय प्रदान करके स्वयंको नीडरताकी प्राप्ति करानेवाली परस्परकी पूरकताको प्रस्तुत किया है । किसीभी जीवका घात होनेसे उस जीवसे वैर निर्माण होता है, पुनः वह वैरभावना परंपरासे विकसित होती जाती है । मरनेवाला जीव प्रबल शक्तिवान् बननेके पश्चात् परंपरित संचित वैर-भावके कारण कभी न कभी, कहीं न कहीं, किसी प्रकारसे संयोग-निमित्त प्राप्त होते ही हमारा घात करता है और वैर तृप्तिका अनुभव करता है, जो प्रायः तृप्ति न बनकर परम्परित वैर वसूलीकी तड़प बन जाता है । यही कारण है कि हमें सदा-सर्वसे इर रहा करता है । उपरोक्त "अहिंसा' सिद्धान्तको स्पष्ट करते हुए जिनशासन उद्घोषणा करता है कि, जो जितना अहिंसक होगा वह उतना ही नीड़र होगा । अतः किसी भी जीवको-छोटे से छोटे या बड़े से बड़े जीवको घातसे-मृत्युसे बचाना ही स्वयंकी आत्माको घातसे बचानेकी ही प्रक्रिया स्वरूप है; जिसका विवेचनप्ररूपणा भी विश्वशांति और विश्वसुखाकारीके बीज सदृश माना गया है । इसी उद्देश्यको लेकर श्री आत्मानंदजीम.सा.ने प्रायः अपने मुख्य सभी ग्रन्थोंमें ऐसी परिपूर्ण अहिंसाकी प्ररूपणा की है-'जैन तत्त्वादर्श'में धर्म-स्वरूपका वर्णन करते समय 'अहिंसा पालन'को समझाया है । 'नवतत्त्व संग्रह'में कर्मके बंध-आश्रवनिर्जरा तत्त्वकी प्ररूपणान्तर्गत “हिंसा-अहिंसा का स्वरूप स्पष्ट किया है । 'अज्ञान तिमिर भास्कर में वैदिकी हिंसाके हिंसक स्वरूपको स्पष्ट करते हुए उससे कैसे बचा जा सकता है, इसे दर्शित करवाते हुए 'अहिंसात्मक आत्मिक यज्ञ के स्वरूपको प्रदर्शित किया है। जबकि 'तत्त्वनिर्णय प्रासाद में 'अयोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका' और 'लोकतत्व निर्णय के बालावबोधका विवरण प्रस्तुत करते हुए, एवं मनुष्यके 'सोलह संस्कार' वर्णनान्तर्गत अंतिम संस्कार वर्णनमें भी, जाने-अनजानेमें हुई हिंसाके लिए निंदा-गर्हादिकी विस्तृत प्ररूपणाका प्रयुजन हुआ है । 'सम्यकत्व शल्योद्धार में 'मुंहपत्ति-निर्णय के विश्लेषण प्रसंगमें और 'चिकागो प्रश्नोत्तर में सर्वधर्म समन्वयी-विश्वधर्मके स्वरूप वर्णनमें; तथा 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर में विभिन्न प्रश्नोत्तरांतर्गत हिंसा विषयक शंकाओं एवं समस्याओंके समाधान युक्त प्रत्युत्तरोमें अहिंसा विषयक विवेचन हुआ है । “अगर संसारका मानव समाज अहिंसा तत्वको जान लें, उसके यथार्थ स्वरूपको पहिचान लें तो जगत की शान्ति भंग होनेका अवसर ही प्राप्त न हों, और न निर्बलों पर अत्याचार एवं अन्याय करनेका मौका मिले । अपने अनुचित 95) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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