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राष्ट्रके तथा करुणा सभर प्रेमभाव और तितिक्षा रूपी त्रिवेणीकी तरलतामें सूक्ष्म जंतुसे समस्त जन-जन पर्यंतके साथी बननेमें सफलता पायी थी । आचार्यश्रीजीका मिशन-उनकी पैनी दृष्टिमें सांस्कृतिक चैतन्यके अभावमें, भरपूर भोग विलासोंके संध्याकालीन मनमोहक रंगोंमें परमसुख एवं आनंदके आभासका चित्र झलकता था । तत्कालीन विभिन्न क्लिष्ट-कष्टदायीकंकासी परिस्थितियोंमें, हिंसादि अनिष्ट मुक्त जीवन स्वप्नील कल्पनाओंसे भी परे था । अनेक रूढियों और प्राचीन रिवाजोंसे ग्रस्त समाजमें अज्ञानताके कारण दीन-हीन-दयनीय जीवनके सुधार और उद्धारकी अत्यावश्यकता थी। उनके ही शब्दोंमें-“प्राणी-मैत्री, मानव-कल्याण, समाजोद्धार, राष्ट्रीय एकता और विश्व बंधुत्व-ये पंचामृत हैं, जो मानव समाजके स्वास्थ्यके लिए संजीवनी औषधि तुल्य हैं ।"१-इन पंचामृतोंको कथित करनेवाले वचनामृत सत् वाणी स्वरूप भी है और सत्य स्वरूप भी । ये अमृतौषधियाँ हैं राजरोग या जीवलेवा बिमारियोंके लिए, जो जनजीवनकी स्वस्थताको कुरेद कुरेदकर विनष्ट कर रहीं हैं । समाजोद्धार और राष्ट्रीय एकता-उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें समाजोद्धारके लिए विशिष्ट अभिगमोंको दर्शाते हुए अनेकबार शादी-ब्याहोंमें होनेवाले फिजूल खर्च, भोजन समारंभोंके ठाठ और दहेज़ादिमें व्यय होनेवाले निरर्थक धनराशिको जरूरतमंदोंके लिए अर्पण करनेकी अपील की है । तो शादीकी योग्यताकी चर्चा करते हुए शादी करनेवाले दुलहा-दुलहिनकी उम्रादि योग्यताकी विशद प्ररूपणा की है । “जैनागमोंमें तो “जोवणगमणुपत्ता" इति वचनात्, जब वर-कन्या यौवनको प्राप्त होवे तब ही विवाह करनेकी प्ररूपणा है । 'प्रवचन सारोद्धार में लिखा है कि, सोलह वर्षकी स्त्री और पचीस वर्षका पुरुष-तिनके संयोगसे जो संतान उत्पन्न होवे, सो बलिष्ट होवे हैं इत्यादि मूलागमसे तो बाललग्नका और वृद्धके विवाहका निषेध सिद्ध होता है ।१०
होशियारपुर श्री जिनमंदिरकी प्रतिष्ठावसर पर अपने विचारोंको प्रस्तुत करते हुए आपने फरमाया था -"बालविवाहकी प्रथा और परदेकी कुप्रथा मुस्लिम शासनकालमें प्रचलित हुई । इससे पहले इन दोनों बातोंको कोई नहीं जानता था । अब, वह समय व्यतीत हो चूका है । इसके साथ ही उन प्रथाओंको विदा कर देना उचित है । बालविवाह सर्वनाशका कारण है । इससे मस्तिष्क और शरीरका विकास रुक जाताहै । कई व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । जब तक वीर्य परिपक्व न हों, और पढ़ाई समाप्त न हों, तब तक उनका विवाह नं करें ।११
सामान्यतया समाजके साधारण गृहस्थोंके लिए उनके दिलमें अपार करुणा थी । जीवन यापनके जटिल झमेलोंसे दूर रहकर अत्यन्त सरलतम जीवन बसर करनेके लिए उनका सदैव आग्रह रहता था। उनका संक्षिप्त सारभूत उपदेश यही था कि "अपने खर्चको हमेशा आमदनीसे कम रखो, सच्चाई और ईमानदारीसे सब काम करो, किसीको यथासंभव दु:ख न दो - यही धर्मका निचोड़ है ।१२.
. समस्त राष्ट्रीय जनजीवन पर दृष्टिपात करने पर आचार्य प्रवरश्रीने निदान किया था कि, अज्ञानता ही इन सर्व रूढ़ियोंकी बुनियाद है । अतः उन्होंने उनकी अज्ञानताके अंधकारको अदृश्य करनेवाले आदित्यके-साहित्य सृजन, प्रवचनधारा और स्वयंकी आचरणा रूपी-प्रकाशसे प्रकाशित करके ज्ञानोज्ज्वलता प्रदान करनेका भरसक प्रयत्न किया । शिक्षाका प्रचार होनेसे ही धार्मिक और व्यावहारिक उन्नति संभव हो सकती है-ऐसा सोचते हुए उन्होंने अपनी अंतिम क्षणों में भी अपने पट्टधर श्रीमद्विजय वल्लभ सुरीश्वरजीम.सा.को इस बातका परामर्श दिया था कि, अगर सरस्वती मंदिरकी स्थापना न हुई तो अबूध-अज्ञान-भोले समाजका बेहाल हो जायेगाः अतः मेरी यही कामना है कि, सरस्वती मंदिरोंकी स्थापना करके ज्ञानका प्रचार और प्रसार करना चाहिए । “भारत देश आज तक अपनी संस्कृति और सभ्यताकी रक्षा किसके बल पर कर पाया है? - क्या आपने कभी सोचा है? ..... मुझे तो स्पष्ट कहना पड़ेगा कि वह बल हमारे ज्ञानका है, जो हमें अपने इतिहास-दर्शन-साहित्य आविसे प्राप्त हुआ है ।..... यदि सच पूछा जाय तो इस जागृतिका प्रारम्भ न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजीम.सा.से ही हुआ है । आपने समाजकी दशाको देखकर यह खूब विधार लिया था कि यदि यह दशा रही तो कुछ दिनों बाद न जाने क्या से क्या हो जाय ? फलतः समाजकी
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