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________________ " गीतार्थ आचार्य पदयोग्य-सुरीश्वरजीकी विचारधारा जितनी भव्य थी आचरण उतना ही महान था उत्तम विचारोंको अपनी उपदेशधारामें निरूपित करते हुए जीव स्वरूपकी प्ररूपणा द्वारा वर्तमान जीवविज्ञानकी अपूर्णता पंचास्तिकाय द्रव्य- पर्यायादिके परिचय करवाते हुए वर्तमान भौतिकशास्त्रादि सर्व विज्ञानोंकी पा-पा पगली: चौदह राजलोक द्वीप समुद्रादिके स्वरूपको वर्णित करते हुए वर्तमान भूगोलकी अस्पष्टताः 'सूर्यप्रज्ञप्ति' आदि सूत्रोंके खगोलिक तथ्योंके साथ वर्तमानकालीन खगोलादिकी असमंजसता आदि अनेक विषयोंके साथसाथ प्रमुखतया परम अहिंसाके उपलक्ष्य में अन्य धर्मोके 'दयाधर्मकी तुलना करके जैनधर्मकी परापूर्वसे प्रवाहित उत्तमविद्याओंका - शाश्वत सिद्धान्तोंका और मानव समाजोपयोगी विचारश्रेणियोंका वर्णन करते अघाते नहीं थे । शास्त्राध्ययनकी आवश्यकता सम्पूर्ण सत्यके संशोधक के विस्तृत गहन सापेक्षिक-समीक्षायुक्त अध्ययनके पीछे छीपा राज हमें "चिकागो प्रश्नोत्तर' में व्यक्त उच्चारणों में स्पष्ट रूपसे दृष्टिगोचर होता है यथा-"नाना प्रकारके धर्मशास्त्रोंका अवलोकन करनेकी आवश्यकता इसलिए हैं, क्योंकि, पक्षपात रहित होकर मध्यस्थ भावसे सर्व मतोंके शास्त्रोंका अध्ययन करके तत्त्वविचार करनेसे जीवको सत्यमार्गकी प्राप्ति होती है । "५ इन्हीं उद्गारोंके लिए “श्री आत्मानंद जन्म शताब्दि स्मारक ग्रन्थमें” स्वतंत्र विचारधारा प्रकट की गई है- दृष्टव्य है - What a liberality of views ! What a mental poise and a carving for the truth! But what about our selves? We know not our own religion, and our own faith is shaking for that reason. To study comparative religion and than to turn, by our sweet and intelligent persuasion, the non-believers into Jains would mere dream for us all"& उनके हृदयमें केवल जैनधर्मकी उन्नति और जैन समाज सुधारकी ही लगन या तडप थी, ऐसा नहीं था, लेकिन समस्त मानव जातको उन्नत देखनेकी उत्कट आकांक्षा थी । वे मानते थे कि किसी मत या पंथके प्रचारमें ऐसे सत्य और ईमानदारी होने चाहिए, कि जिससे मानवताके व्यापक नियमोंकी उपेक्षा न हों अथवा विशाल मानव जातिके हितके प्रतिकूल कुछ भी न हों, लेकिन सबकुछ मनुष्य जातिके सुख व कल्याणको बढ़ानेवाला ही हों यथा- इसलिए सर्व मतवाले अपनी जाति, अपने मतमें दर्शाये अहितकारी कामोंको छोडकर अपने आपमें योग्यता प्रकट करके सद्धर्मके अधिकारी बनें । सर्व पशु-पक्षियों और मनुष्यों उपर मंत्री भाव करें । देवगुरुकी परीक्षा करके यथार्थ धर्मकी प्राप्ति करें। इन वाक्योंसे प्रस्फुटित होती है उनकी जीव मात्रके प्रति उदात्त और उदार कल्याण कामनाकी भावनायें । इन कल्याण कामनाओं में अंतर्निहित उनकी विश्व वत्सलता, जैनधर्ममें आवश्यक अर्वाचीनयुगीन परिवर्तन और समस्त मानव जातको योग्य मार्गदर्शन देकर विश्वमें सुख-शांति स्थापित करनेकी विशाल दृष्टि निम्नांकित रूपमें दृश्यमान होती है । Shree Vijayanand Suri was totally modern in his out look, and did not the evil customs of his day..... He wished that the Jain society should march along wth the time, it should educate it self, organise it self and act and preach the doctrine of Ahimsa to every person. For Mr. V. R. Gandhi's efforts, at Chicago, Jainism would have been little known to the other religious minded people of the world. Now, western scholars come to India to study Jainism. Could we establish a grand research library, where these foreigners and our own scholars may be able to dip, deep into the ocean of our ancient literature and bring out for the world pearls of purest ray serene." उपरोक्त प्ररूपणानें सक्षम सुरीश्वरीजीके दो विरोधाभासी व्यक्तित्व-प्राचीनताके प्रेमी एवं अर्वाचीन अवधूका परिचय प्राप्त होता है । इस विलक्षणतामें जो असाधारणत्व और विस्मयता छिपी है, वह यह है कि, इसी विरोधाभासी व्यक्तित्वके कारण ही वे एक साथ एक समय एक स्थान पर पुरातन सौंदर्यको यथास्थित रखते हुए, उन्हीं तथ्योंको अद्यतन अवधारोमें ढालकर सजानेमें सफल हुए हैं । इसीके बल पर उन्होंने परस्पर धर्मोंके सद्भाव और जातीय एकताका बिगुल बजाकर एक और अखंड विश्वके एवं समुन्नत स्वाधीन Jain Education International - 93 " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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