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________________ शिवमस्तु सर्व जगतः पर्व तृतीय श्री आत्मानंदजी महाराजजीके 'गोभिः प्रबोधयति विश्वशेषमेतत्, Jain Education International साहित्यका साहित्यका विश्वस्तरीय प्रभाव सूरे । त्ववि स्फुरिततेजसि लोकबन्धो । मुच्यन्त एव भविनो धनकर्मबन्ध वीरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥ " प्रचंड प्रीष्मकी भयंकर अग्नि ज्वालाओंसे तप्त प्रकृतिकी प्रशान्तता, हिमगिरि शृंगसे उमड घुमडकर आनेवाली मेघावलिसे बरसती बौछारोमें समाहित हैं । वैसे ही विधिके विधान और प्रकृतिकी प्रेरणाकी अगम्यता के स्वरूपको कथित करनेवाले पुण्यात्माओंके अमृत सिचन सांसारिक मोहकी मदहोशी में या बेहोशी में चैतन्यका संचार करते हैं । घनघोर मेघसे बरसता बरखाका जल अभेद्य भूमिको भेदकर, सुषुप्त धरा पर जीवन संचार करते हुए संस्कार बिना उज्जड धरतीको हरियाली रूप साडीसे सजाकर नवपल्लवित बसंत-सी प्रमुदित बनाता है, नदी-तालाब-सरोवरादिको छलछलाता है; और कोरी किताब जैसे शून्य आसमानको इन्द्र-धनुषी आभाकी सजावट देकर शोभायमान बनाता है । जल-थल नभ सर्वत्र ही प्रसन्नताकी प्रभावना करनेवाले, सर्वदा अर्पणधर्मी, घटाटोप मेघ-न दिन देखते, न रात कायाको निथार निथारकर आठों याम बरसते ही रहते हैं - मानो उन्होंने प्रण न ले रखा हों, कि स्वल्प समयमें ही सर्वत्र, सर्वकी - अवनिसे अंबर पर्यंतकी संपूर्णतया कायापलट कर देनी है । कलका क्या विश्वास ? अंततः उन्हें तो अधिकतम उपकारकी तमचाको पूर्ण करते करते अनंतकाल - प्रवाह में समा जाना है, और अपने पीछे छोड़ जाना है, वनोपवनोंको बहलानेवाली रंगरंगीली मौसमें, आहलाद और पुलकितताके पुलिंदे ! वैसे ही विचक्षण और विलक्षण विभूतियाँ भी आध्यात्मिक प्रेरणाके पुण्यसंदेशको प्रसारने हेतु पृथ्वीतल पर पदार्पण करती हैं । 'शिवमस्तु सर्व जगतः के भाव लहराते हुए क्षमा नम्रता- सरलता निर्लोभतादिके जयकारोंके गुंजारवसे जन समाजके जीवनोद्यानको मुखरित करके, मानवभवके साफल्यको समाहित करनेवाली आराधनामय लताकुंजोंको, अनेकविध पुण्यपुष्पोंसे सजानेकी कर्मठता रूप, स्वजीवनसे अधिकाधिकतम परोपकार करते करते आत्मीय पुण्यप्रभाको प्रसारित करके, अनादि अनंतकालीन स्वरूपवाले संसार प्रवाहमें अंतर्धान हो जाती है। रह जाती है केवल उन पुष्पोंकी सुवास, उस अस्ताचलके सूर्यकी आभा । मेघ और महात्मा दोनों समस्वभावी परार्थहेतु प्राणोत्सर्ग करनेवाले नयनगोखसे अमृतधारा बरसानेवाले अन्यके दिलमें संजीवनीके सारतत्त्वको समा देनेवाले आधिभौतिक और आध्यात्मिक वैभवप्रदाता, श्री और सौंदर्यके स्रोत- विद्युल्लताकी चमक और श्रुतभास्करकी दमकसे सर्वत्र प्रभाव, प्रताप, प्रभविष्णुताके प्रवर्तक-मुमूर्षुमें जिजीविषा और दीन-हीनमें जिगीषाके प्रकटकर्ता होते हैं । विरल विभूति - पुण्यवान महात्मा-धर्म, समाज, देश, राष्ट्र और विश्व में ऐहिक एवं पारलौकिक सुखास्वादके अनुभव कराते हुए विद्या और वैराग्यको उज्जवल करते हैं । इस पर भी जैन साधुका विशुद्ध वैराग्य-मोमके दांतसे लोहेके चने चबाने सदृश ! अतः ऐसी उत्कट और उच्चादर्शमय साधुता ही जैन साधुको विश्वके किसीभी धर्मके साधुसे परमोत्कृष्ट रूपमें प्रदर्शित करती है। उनका वैराग्य वासित व्यक्तित्व, विराट महार्णवके मोती-प्रापक मृत्युंजयका अहसास दिलाता है | जैन साधुके तप-त्याग, वैराग्य-विद्वत्ता, परके प्रति अप्रतिम कोमलता और स्वकर्मयुद्धमें पराकाष्ठाकी कठोरता, जीव मात्रके प्रति हार्दिक प्रेम और सहानुभूति आदि आकर्षक गुणोंके संगमने अनेकानेक जैनेतर समाजको भी आकर्षित किया है, मानो उनके भुवनमोहक स्वभाव स्वरूप रेशमके धागेके बंधनोंमें उन्हें जकड़ न रखा हों । 90 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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