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जन जीवनोपयोगी सिद्धान्त--जैन सिद्धान्तोंका, आचार-विचारोंका, जनजीवनोपयोगी एवं मंगलमय और आत्मकल्याणकारी प्रतिबोध-इतिहासमें अखंड रूपसे प्रवहमान होता रहा है । इन्हीं तथ्योंको 'श्री आत्मानंद जन्म शताब्दि स्मारक ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है ।
"The Jainism occupies an important place among the ancient religious of the world. Its philosophical tenets, ethical rules and theories of logic have a peculiar aspect of their own, which speak its antiquity and universality. In theory as well as in practise, Janism maintains a broad angle of vision and embraces in its fold all the living creatures desiring to attain emancipation. It lays down rules for the upliftment of all the living beings from the smallest insects down to the highly developed man. For the plain fact is that the gospel of Bhagwan Mahavira was expounded equally for all people without any distinction of caste or creed. In this sense Jainism can well claim to become a Universal religion. Its massage of "Ahinsa Parmodharm" (non violence) is a recognition of Universal brotherhood of not only man but also of all living creatures....
Jains have a philosophy of their own, which can solve all the knotty problems of th's world more clearly than any other philosophy. This philosophy can be followed and piectised at all times, at all places and under all circumstances, by all sorts of people, high or law, literate or illiterate........ Almost all the Jain Shastras bear testimony to the fact, That Jainism was universally practised by all kinds of people--- The Aryans and the Non Aryans...... All this above facts go to prove that Jainism is nothing but a Universal religion" ? - यहाँ हमें अनुभूत होता है कि प्राचीनकालमें या अर्वाचीनकालमें उत्तम साहित्यकार साधुओंकी समाजसेवाने जैनधर्मको जीवंत-जागृत और ज्वलंत बनाये रखा है । उस परम्परामें एक कड़ी बनकर युक्त होनेवाले-साहित्यकार, साधु और समाजसेवी-त्रिवेणी संगमको प्राप्त और मानवताकी उच्च श्रेणि पर स्थित आचार्य प्रवर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजीम. द्वारा विश्वको अनेकविध सेवायें-सदाचार और चारित्रके विद्वत्तापूर्ण संशोधन, स्पष्टीकरण और समर्थन रूपमें-प्राप्त हुई है ।। निरामय समष्टिका स्वप्न- “कीड़ा जरा सा, और पत्थरमें दर करें !
इन्सान क्यों न दिले दिलबरमें घर करें ? इस विचार-कर्णिकाको प्रसारित करनेवाला केवल तीन बीसियोंका-प्रगतिकी पराकाष्ठाको प्राप्त-जीवन; प्रथममें आत्माराम, द्वितीय, संत आत्मारामजी म. और तृतीय श्रेष्ठ संविज्ञ साधु 'आनंदविजय'से सुरीश्वर पदासीन श्री आत्मानंदजी (श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी) म. सा.। अनेक प्रत्यवायोंके प्रतिरोध करके सच्ची आत्मश्रद्धाके मधुर फल प्राप्त उनका जीवन थाः जिससे अनुभूत होते हैं-अखंड-वजांग-ब्रह्मचर्य पालनेसे, कदम कदम पर चमत्कार सर्जन; कर्णगोचर होता है,पाषाणमें भी पुष्पोंको पैदा करनेवाली-पुरुषार्थी-प्रचंड साधुताका निर्घोष; दृष्टिगोचर होती है, भीरु-निर्माल्य-और आडम्बर युक्त साधुताके उस युगमें महान-त्यागी-सत्यवीर और सम्यक् दृष्टि जोगंधरकी आत्मिक साधुता !. जिसके संबलसे आध्यात्मिक दारिद्रयको दूर करनेवाली धार्मिकताकी उदार सखावतः हठाग्रही-एकान्तवादी-दिलोदिमागको पलट देनेवाला सर्व समन्वयवादी अनेकान्तवादका अभ्युदयः
और अन्यकी समुन्नतिमें असूयादि छिद्रान्वेषी भावसे परदोष प्रकाशक-तेजोद्वेषिताको जलांजलि देनेवाले सहानुभूतिपूर्ण, जन जनके आत्मकल्याणकी वृत्ति-प्रवृत्ति आदि द्वारा जैनधर्मके दो महान और महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तके-जीवमात्रके प्रति त्रिविध त्रिविध सद्भावक अहिंसा और अन्य धर्मके प्रति त्रिविध विविध सद्भावक अनेकान्तवादकेआचरणकर्ता, परमोपकारी, अवधू आचार्य प्रवर श्रीआत्मानंदजीम.सा.ने जडवादमें डूबे जन-जीवनके उद्धार हेतु
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