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________________ गुजरी . “तें तेरा रूप न पाया रे अज्ञानी.... माया प्रपंच ही जगतको मानी, फिर तिनमें ही भूलाया रे....” आ.वि.स्त. १०२. इस प्रकार सम्राट सुरीश्वरजी श्री आत्मानंदजी म.साने सफल संगीतज्ञकी अदासे राग रागिनियोंका सफल प्रयोग किया है । मानो तत्कालीन समाजको प्रेरणा दे रहे हों कि संगीत ऐसी विधा है, जिससे इहलौकिक आनंदोदधिकी लहरोंका अनुभव होता है और पारलौकिक आत्मानंदके विशाल-अगाध रत्नाकरकी शांत-गंभीर-स्थिर स्थितिकी चिरंजीव प्राप्ति भी हो सकती है । निष्कर्षः- साहित्यकी काव्यविधा बिन्दुमें सिन्धुको समाविष्ट करनेकी क्षमता रखती है । सिद्धकवि उमड़तेघुमड़ते अकथ्य भाव वारिधिकोदो-चार शब्दोमें या दोपंक्तियोंमें ही समाहित कर देता है । कवीश्वर श्री आत्मानंजी म.सा.ने भी अपनी पद्य रचनाओमें आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-नैसर्गिक, दार्शनिक-सैद्धान्तिक-आगमिक, सगुण-निर्गुणादि ईश्वर प्रति सर्वस्व समर्पित दास्य या सख्य भक्ति-भावकी स्थूलसे लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म, ऐसी जज़बाती अनुभूतियोंको प्रस्तुत-अप्रस्तुत, अलंकार और छंद, प्रतीक और बिम्बादिके कसबसे सजाकर, विविध राग-रागिणियोंसे शृंगारित करते हुए अपने प्रातिभ काव्य-वैभवको लूटाकर स्व-परकी निजानंद मस्तीकी आहलादपूर्ण प्रसन्नताको प्रकट किया है । (89) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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