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________________ गाया जाता है । कविराजने इसे ताल दीपचंदीके साथ प्रस्तुत किया है श्रीमहावीरजीके स्तवनमेंदीन दयाल करुणानिधि स्वामी, वर्धमान महावीर भलेरो । श्रमण सुहंकर दुःखहरनामी, आर्यपुत्र भ्रमभूत दलेरो..." आ.वि. स्त. ७८. इसी भोपाली रागको "ताल जलद एकतालमें" गानेसे गंभीरतामें कैसे परिवर्तन आता है देखिये"नाचत सुर पठित छंद, मंगल गुन गारी..... सुर सुंदरी कर संकेत, पिक धुनी मील भ्रमरी देत; रमक छमक मधुरी तान, घुंघरु धुनिकारी...." आ.वि.स्त. पृ. ६० श्रीरागः- यह अति भव्य राग है जो शामको गाया जाता है। इसकी बंदिशमें ही ऐसी भव्यता है कि श्रोताको आनंदित और प्रसन्न बना देती है। परमात्माके गुण-रूपके वर्णन इसमें किये जाते हैं- जैसे "जिनवर पूजा शिवतरु कंद.... आतम चिदघन सहज विलासी, पामी सत् चिद् पद महानंद.....” अ.प्र.पू. - ढाल - ३ मालकौश:- शांतरस पोषक, गम्भीर प्रकृतिका यह राग मध्यरात्रिके समय गाया जाता है। कहीं कहीं पर कार्यक्रमके अंतमें बधाईके रूपमें भी गाया जाता है। प्रमुखतया समवसरण स्थित श्री अरिहंत परमात्माकी देशना मालकौशमें ही प्रवाहित होती है। “न्हवण करो जिनचंद, आनंद भर...... ” अ. प्र. पू. - ढाल - 9. आतम निर्मल सब अघ टारी, अरिहंत रूप अमंद भैरवीके निकटके रागो में सिंध जंगला- कसूरीजंगला झिंझोटी जोगिया आदि राग माने जाते हैं। भैरवी गाते हुए तीव्र मध्यमको पलट लेनेसे 'रामकली बन जाता है। ये सभी राग पंजाब - राजस्थान या उत्तरी भारतमें अधिकतासे गाये जाते हैं। 'रामकली' प्रायः प्रातःकालमें गाया जाता है। "सर्व मंगलमें पहलो मंगल, जिनवर तंत्र सु गायो.... नव. पू. १० इनके अतिरिक्त कालिंगड़ा, जयजयवंती, धनाश्री, पीलू, बड़हंस, बिहाग, परज, वसंत, सोरठ. बरवा, आदि रागोंका भी मुक्त मनसे प्रयोग किया है । इन रागों को आपने प्रमुखतया पंजाबी ठेका, दीपचंदी, कहरवा, दादरा, रूपक त्रिताल, जलद एकताल आदिके माध्यमसे पेश किया है । काव्योंकी रागों के साथ गानेकी विभिन्न शैलियाँ होती है। एक शैलीमें एक राग अथवा एक से अधिक राग भी गाये जा सकते हैं- जैसे ठुमरीमें पहाड़ी, खमाज, भैरवी, (जंगला) आदि राग गाये जाते हैं । श्रीआत्मानंदजी म.सा. ने अपने पद्यो में मराठी लावणी, गुजराती गरबा, मुस्लिमों कीकव्वाली, पंजाबी ठुमरी, उर्दू-गज़ल, राजस्थानी-होरी-गुजरी आदि लोकसंगीतके भी विविध प्रयोग किये हैं- यथा - लावणी:- एक-अनेक सआदि-अनादि, अंतरहित जिनवर बानी । निज आतम रूपे अज अमल, अखंडित सुख खानी....” श्रीनवपद पूजा - २ व्हाला भवि जइयो विमलगिरि भेटवा.... अरे कांइ भेटिया भवदुःख जाय रे, अरे कांइ सेविया शिवसुख धाय रे....ड. लि. स्त. ५. ठुमरी चलो सजनी जिन वंदनको मधुबनमें पाप निकंदनको ....... समेत शिखर पर प्रभुजी बिराजे, दरसन पाप निकंदनको.... ह.लि. स्त. ५० "दंपति जोड़ी अधिक प्यारा, सुंदर धपु अति कर शिंगारा । अंतकाल भई छार.... लगाया दिल नेमिके लार..." ह. लि. स्त. २६. गरबा कव्वाली गज़ल -- - Jain Education International " “सरण लेहि प्रभु थारी, अब मैं, सरण लेहि प्रभु थारी..... तिमिर मियातके दूर करणको थे जाणो सुखकारी.... ह. लि. स्त. ७५ "सुखकी उपमा जगमें नहीं, तिण केवलज्ञानी शके न कही जब सहज समाधिके होरी- बसंत होरी -“बंदे कछु करले 7 " रंग पणे सिद्ध और नहीं तूं और नहीं ।"...न.पू.२ कमाइ रे.....जाते नरभव सफल करा रे..बंदे कछु.. श्रीनव. पू. ८ 88 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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