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है। उन स्वरलहरियोंका आस्वाद अनेकबार, बार-बार करनेके लिए मन मज़बूर बनता है । श्री मोतीचंद कापडियाजीके शब्दोमें - “उनके काव्योंसे अगर उनकी अंतरात्माकी पहचान हो सकती हों तब वह अति उदात्त भावों में सर्वदा मस्त रहती होगी-ऐसा ही अंदाज़ किये बिना रहा नहीं जा सकता। उनकी वाणी अंतर्दशाका आविर्भाव है, उनके शब्दचित्र अंतरात्माका प्रदर्शन हैं और उनके व्यक्तित्वको समझनेके लिए उनके हार्दिक उद्गार फोटोग्राफ रूप है ।१०६ इन्हीं भाव प्रतिबिम्बको ऐसे ही कुछ रसांशयुक्त आलेखनोंमें प्रत्यक्ष करानेवाला प्रयत्न अब किया जाता है । भैरवी:- भैरवी सदा सुखदायिनी' अर्थात् 'भैरवी' किसी भी समय गा सकते हैं, फिर भी विशेष रूपसे सुबहके समय गाना चाहिए । कई बार कार्यक्रमके समापनके समय भी गाया जाता है। गंभीर ध्वनिके साथ सभी सूरोंसे गाया जा सके ऐसा यह भैरवी राग ज्यादा असरकारक वातावरणका आविर्भाव कर सकता है । जैसे सिद्धोंकी अकल-अपूर्व गतिका वर्णन गंभीर ध्वनिके साथ गानेसे मानो श्रोता भी सिद्धशिला पर स्वयंको स्थित हुआ अनुभव कर सकता है
__ “बंधन छेद असंग लही, गति कारण पूर्व प्रयोग कही;
जब गति परिणामका राग गहे, सिद्ध और नहीं तूं और नहीं । नवपद पूजा-२ सूर-सम्राट कविवरने भैरवीका प्रयोग अनेक स्तवन-पद-पूजादि विविध काव्योमें यथायोग्य रूपमें किया है-जैसे परमात्माके जन्म महोत्सवका वर्णन परिपूर्ण भक्तिभावसे भैरवीमें · गाया है
"सुरपति सगरे जिनपति केरा, करे महोत्सव रंगे रे.... सब सुरवर मिलि, सुरगिरि आये, सोहमपति चित्त चंगे रे;
बहु परिवारे जन्म नगर में, जिनपति नमत उमंगे रे..." स्नात्रपूजा-ढाल-४ कल्याणः-- संध्या समय गाया जानेवाला और शांत प्रकृतिके कल्याण थाटके रागको आत्म-परितोष या मंगलके लिए गानेकी परिपाटी है इसके अनेक भेद है-शुद्ध-श्याम-गोरख-यमन आदि"रावण अष्टापद गिरिंद, नाच्यो सब साजसंग । बांध्यो जिनपद उतंग, आतम हितकारी"...... स.भ.पू.१६ माढ़ रागः--शुद्ध स्वरोंसे गाया जानेवाला यह माढ़ राग विशेषतः राजस्थान-पंजाब आदि प्रान्तोमें गाया जाता है। इस रागसे प्रीति, विरहकी तड़पन, वैराग्य रस आदिमें निखार आता है । यथा
"प्रीत लागी रे जिणंद शुं प्रीत लागी..... जैसे घेनु वन फिरे रे, मन बछरे के रे मांह ।
चरण कमल त्युं वीर के रे, छिनक ही विसरत नांहि ।"........आ.वि.स्त.पृ.६१ सुहाः- इसका सीधा सम्बन्ध वैराग्यके साथ माना जाता है ।
“शामरे ना जा रे.... नव भव केरो नेह निवारी, छिनकमें ना छटका जा रे...
हुं जोगन भइ नेह सब जारी रे, अंग विभूति रमा जा रे..." आ.वि.स्त.पृ.९९ खमाजः- लगता है. यह संगीतज्ञ सुरीश्वरजीका प्रिय राग होगा । इसका उन्होंने अनेक बार प्रयोग करके अपने आत्मीय भावोंको सहलाया है-कभी बहलाया भी है । कई बार आत्मीय सुखकी याचनायें भी की हैं। यह राग (Light Music) के योग्य है और शृंगारसे शांतरस निष्पन्न करानेका सामर्थ्य रखता है ..
“मान मद मनसे परिहरता, करी न्हवण जगदीश.... मनकी तपत मिटि सब मेरी, पदकज ध्यान हिये धरता,
आतम अनुभव रसमें भीनो, भवसमुद्र तरता...."सत्रहभेदी पूजा-ढाल-१ भोपाली-यह अत्यन्त सादा राग होने पर भी अति विशाल और अत्यन्त गंभीर राग है । अधिकतर आग्रा. घरानेकी गायकीमें इसका विशेष प्रयोग होता था । यह गंभीर प्रकृतिका है और शामको .
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