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________________ सर है, जिनमें कुछ भावोंके प्रणयनके आह्लादके बाद उनके वात्सल्य-भक्तिके भी कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं। वात्सल्यरस-भ.महावीरको माता त्रिशलाजी गोदमें लेकर खेलाती हैं। उनके उमड़ते हुए भावना भरपूर इस पदको आस्वादें -“त्रिशलादे गोद खिलावे छे..... वीर जिणंद जगत कृपाल, तेरा ही दरस सुहावे छे..... आमेरबाला, त्रिभुवनलाला, ठुमक ठुमक चल आवे छे.... पालने पोढ्यो त्रिभुवन नायक, फिर फिर कंठ लगावे छे..... आओ सखि मुझ नंदन देखो, जगत उद्योत करावे छे..... आतम अनुभव रसके दाता, चरण शरण तुम भावे छे.....(ह.लि.पद.४९) पालने में सो रहे श्री पार्श्वनाथ भगवंतकी स्वर्गलोकके इंद्र इंद्राणीकी भक्ति--- “पालने जिन पास पोढइया सुरपति मिल सब देत है लोरी, हर्षि वामा देवी मइया..... इंद्राणी मिल मंगल गावे, नाचे करे ता ता थइया..... तूं मेरा लाला, सब जग बाला, फिर फिर निज मुख मटकइया..... आतम कल्पतरु जग प्रगट्यो , दीठड़े प्रभु आनंद लइया..... (ह.लि.स्त.६५) ऐसे ही उनकी पूजा काव्य-कृतियों में भी-विशेष रूपसे "स्नात्रपूजा में-वात्सल्य रसके प्रवाह हमें भिगोते हैं- “सुपन महोत्सब करो भविरंगे, मुक्तिरमणी सुख लहो भवि चंग"-ढाल-२ “जन्म महोत्सव गावो रे, भवताप निवारी".....ढाल-३ इस प्रकार सभी ढालों और कलशमें श्री अरिहंत भगवंतके जन्मोत्सवका वर्णन किया गया शांतरसः---साधककी साधनाका चरमलक्ष्य आत्मिक सुख प्राप्ति है, जो भवनिर्वेदसे प्राप्त होती है। अतः ऐसी उत्तम साधनाके उत्कृष्ट साधककी कृतियों में उसका विन्यास होना सहज है, जिससे शांतरस निष्पन्न होता है। उनके पद्य साहित्के बहुलांशमें रसराज-शांतरसका अनुभव मिलता है। यहाँ कुछ उदाहरण पेश करते हैं। आत्माकी स्थितिकावर्णन करते हुए श्री वासुपूज्य स्वामीजीके स्तवनमें वे गाते हैं “आतम रूप भूलाय रम्यो पर रूपमें, पर्यो हुं काल अनादि भवोदधि कूपमें; अब काढ़ो गही हाथ, नाथ मुझ वारिया, पाऊँ परमानंद करमरज झारिया।"..... कितनी ही रिद्धि-समृद्धि या भोग-विलास आत्माको प्राप्त हों, लेकिन श्री आत्मानंदजी म.सा.कहते हैं कि, इन सबसे आत्मा कर्म-मुक्त नहीं हो सकती । उसके लिए तो __ “जिन भक्ति फल पाये, मोक्ष तिन नाहि दूरे"..... आत्म हितकारी और भवनिर्वेद प्राप्तकारी उनकी वाणी “उपदेश बावनी में भी स्थान-स्थान पर प्राप्त होती है-यथा “रुल्यो हुं अनादिकाल, जगमें बीहाल हाल, काट गत चार जाल, ढार मोह कीरको; नरभव नीठ पायो, दुषम अंधेर छायो; जगछोर धर्म धायो, गायोनाम वीरको (उ.बा.५०) "भावना स्वरूप में संसार स्वरूपका वर्णन पढते ही अंतरमें निर्वेद भाव-झरने लगता है, और नश्वर सुखकी धड़ाधड़ीसे मन विराम पाता है । “रंग चंग सुख मंग, राग लाग मोहे सोहे, छिनकमें दोहे जोहे, मौत ही मरदके नीके बाजे गाजे साजे राजे दरबार हीमें, छिनकमें कूक हूक सुनीये दरदके" उपरोक्त रसोंकी अग्रीमता होने पर भी उनके पद्योमें शेष अन्य रसोंको भी यथोचित स्थान प्राप्त हुआ है। (84) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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