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आत्मानुभूतियोंके प्राधान्यको लेकर भक्तिकी मधुरतामें पगे हुए सत्य-शाश्वत धर्म और दर्शन, साधना और सिद्धान्तोंका निरूपण सरल एवं हृदयस्पर्शी, फिर भी अनन्य वैशिष्ट्यके साथ किया गया है। यद्यपि उनकी कृतियोंकी सृजना काव्य-शास्त्रीय उद्देश्यको लेकर नहीं हुईं, न उनको काव्यकी आत्मा, साधारणीकरण या रस-निष्पत्तिकी परवाह थीः न वे स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी भावोंकी समन्वित अनुभूतिके प्रति सावधान थे, फिर भी काव्यके माध्यमसे उन्होंने अपनी हार्दिक-सूक्ष्म एवं तीव्र आत्मानुभूतियोंको इस कदर प्रवाहित किया है कि, उनसे भाविकोंके दिलोंसे स्वतः साधारणीकरण होकर यथायोग्य रस-निष्पत्तिका तजुर्बा होने लगता है।
पूर्वाचार्योंने रसके नव प्रकार माने थे और उत्तर मध्यकाल पर्यंत पहुँचते पहुँचते उनमें अन्य दो रसोंकी समन्विति की गई-वात्सल्य और भक्ति-जिनको स्वतंत्र रस रूपमें स्वीकारनेवाले भोज, भानुदत्त, विश्वनाथ, हरिश्चन्द्रादि हैं-अतः शृंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, बीभत्स, अद्भूत, शांत, वात्सल्य और भक्ति-इन ग्यारह रसोमेंसे आचार्य प्रवरश्रीके पद्य साहित्यमें भाव सुमनोंके उद्घाटक, आनंदोल्लासकी अनुभूतियोंके निर्झरोंके प्रवाह रूप, वात्सल्य रसके माधुर्य और शांतरसकी सुधाधाराओंमें प्रवाहित विभिन्न रसोंका यहाँ परिचय करवाया जा रहा है।
__ भक्त कवि श्री आत्मानंदजी म.सा.की रचनाओमें विशेषतः भक्तिरसको प्राधान्य मिला है जिसकी भावपरक पृष्ठभूमिमें हम भक्तिके राग-अनुराग, त्याग-वैराग्य, विनय-विवेक-विश्वास, ज्ञान-ध्यान-विज्ञान, आत्मनिवेदन और सर्वसमर्पण आदि वैविध्य पूर्ण अंगोंका प्राधान्य देख सकते हैं। सामान्यतः भक्तिरसके अंतर्गत शांतरस, वात्सल्य रस और मधुर-दास्य-सख्य भावोंसे छलकता शृंगार रस पलता हुआ अनुभूत होता है। उन्हीं दर्पणमें उनके भक्तिरस प्रवाहका दर्शन करेंगेंराग-अनुराग भावकी सख्य भक्ति (संयोग शृंगार रूप)---
"प्रीत लागीरे जिणंद शुं प्रीत लागी ..... ते तार्यो प्रभु मोहको रे, हरि भवसागर पीर;
ज्ञान नयन मुझे तें दिये रे, करुणा रसमय वीर.....” (आ.वि.स्त.पृ.६१) त्याग-वैराग्यके भावमें पगा हुआ भक्ति रस
"भव तरु डार ताण विस्तारिया, मोहकर्म जड़मूल जर्यो रे, क्रोध मान माया ममता रे, मतवारे चिहुंकन चर्यो रे.....अब क्युं पास परो मन हंसा पास परन वामा रस राच्यो, खांच्यो कर्मगति चार पर्यो रे
राग द्वेष जिहाँ भये रखवारे, भववन सघन जंजीर जो रे..... (आ.वि.स्त.पृ.९६) संयोग शृंगार रसासिक्त विनय-विवेक और विश्वासयुक्त माधुर्य भक्तिको देखें
- “मेरो कोई न जगतमें, तुम छोड़ी हो जगमें जगदीश,
प्रीत करूं अब कौन सुं, तुं त्राता हो मोने विसवावीस ..... (चतु.स्त.१४) प्रभुके प्रति प्रणय भाव रूप भक्तका आत्म निवेदन"जैसे धेनु वन फिरे रे, मन बछरे के रे मांह, चरणकमल त्यूं वीरके रे, छिनकही विसरत नाह..... विंध्याचल रेवा नदी रे, गजवर भूलत नाह, मनमोहन तुम मूर्ति रे, सिमरत मिटे दुःखदाह कदियक दिन मुझ आवशे रे, निरखं तेरो रे रूप, मो मन आशा तो फले रे, फिर न परं भव कूप- (आ.वि.स्त.पृ.६२) सर्व समर्पण भावमें अनन्य भक्ति भावनाके भाव“त्रिभुवन ईश सुहंकर स्वामी, अंतरजामी तुं कहीये, कल्पतरु चिंतामणी जाच्यो, आश निराशे ना रहीये.....
तुम बिन तारक कोई न दीसे, होवे तुमकुं क्युं कहीये,....... इह दिलमें ठानी, तारके सेवक, जग, जस लहीये..(ऋषभदेव स्त.) वैसे तो श्री आत्मानंदजी म.का समस्त पद्य साहित्य भक्ति भाव प्रधान छलछलाता मानस
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