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प्राकृत :- निखेपा (निक्षेपा), बाग-जोग (वाक्ययोग), परतीत (प्रतीत), आणा (आज्ञा), मोख (मोक्ष) पुग्गल (पुद्गल), सांग (स्वांग), रयण (रत्न), अदिट्ठि (अष्ट-दृष्टि), नेह (स्नेह), जम्म (जन्म), अप्पा (आत्मा), सुरग (स्वर्ग), विजोग (वियोग) आदि इनके अतिरिक्त अपनी भाषामें मधुरता लानेके लिए ध्वनि-नाद सौंदर्य व्युत्पन्न करनेके लिए आपने पद्य रचनाओमें विशिष्ट शब्द प्रयोग भी किये हैं -यथा-शब्दोंके रूपमें परिवर्तन करते हुए लाघव युक्त मधुरता भरनेवाले प्रयोग- मुरझाइयां, सुसाइयां, धाइयां, पाइयां, आइयां, छाइयां आदि एक ही पद्यमें प्रयुक्त करके; पियारिया (प्यारा), पूजारिया (पूजारी), पहाडिया (पहाड़), इछिया (ईच्छा) आदि परिवर्तन करके; सोहंदा, रतनंदा आदि मधुर रूप बनाये गये हैं तो नादसौंदर्यके लिए विशिष्ट प्रयोग .
“धूं धूं धप तार चंग, खुखुडघुटट जल तरंग। वेणु वीणा तार रंग, जय जय अघटारी ।" ...... आ.वि.स्त.पृ.६०
“अखय भंडार भरे कौन करे वरनननन"......अष्ट प्रकारी पूजा - धूपपूजा रसोपलब्धिः ---आत्मा देह द्वारा आहार ग्रहण करके और उसका रसमें परिणमन करके उसीसे देह निर्माण करती है। वैसेही कवि स्वात्मासे उद्भवित निजानंद स्वरूप-रसाप्लावित भावसृष्टिको सत्चित्-आनंदकी सीमाको स्पर्श करनेवाले शब्दार्थके सहयोगसे निर्मित कृति द्वारा प्रवाहित करता है, जिससे अखंड रसोपलब्धिकी प्राप्ति होती है, साथ ही ब्रह्मानंद सहोदर अलौकिकताका आस्वाद उपलब्ध होता है। रस क्या है-“रसो वै स" रस आनंद स्वरूप ब्रह्म है-काव्यका प्राण-काव्यकी आत्मा है। रस कवि कल्पनाका नियमन एवं काव्यगत संपूर्ण भावसंपदाका अंतर्भाव है, जो हृदयकी मुक्तावस्थाका अनुभव करवाता है, जहाँ भावकी भूमिका पर शब्दार्थके सौंदर्यका आस्वाद और शुद्ध मानवीयमानसिक अनुभूति रस रूपमें ही प्राप्त होती है, जो साधारणीकरण द्वारा काव्यकी भावसंपदाको सार्वजनिक बनाकर चीरंजीव बनाती है। इसे ही विश्लेषित करते हुए डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन्जीने अपने भावोंको इन शब्दोमें अभिव्यक्ति दी है-“काव्य शब्दोंके माध्यमसे अनुभूतिकी अभिव्यक्ति है। कविके अनुभव साधारण व्यक्तिके अनुरूप ही होते हैं, परंतु उसकी प्रेरित-अनुभूति चेतनाकी उस सांद्रता और घनत्वकी अभिव्यक्ति होती है, जो साधारण व्यक्तिकी क्षमतासे इतर है।" । रसनिष्पत्ति-रस सिद्धान्तका प्राचीनतम निर्देश भरतमुनिके 'नाट्यशास्त्र से प्राप्त होता है। रस निष्पत्ति विषयक उनका अभिमत यह है कि, "विभावानुभाव व्यभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः". अर्थात् विभावअनुभाव और व्यभिचारी भावोंके संयोगसे रसनिष्पत्ति होती है। भट्टलोल्लटके मतानुसार विभावकारण और रस-कार्य है, अर्थात् रसकी उत्पत्ति विभावोंसे, पुष्टि संचारियोंसे, और अभिव्यक्ति अनुभावोंसे होती है। भट्ट नायकके मतानुसार अभिधासे शब्दार्थ-ज्ञान होने पर भावकत्व द्वारा भावकको अनुभूति होती है, और विभावादि साधारणीकृत होकर सर्वके अनुभव योग्य बन जाते हैं। जबकि अभिनव गुप्तजी अभिभावकमें ही रस निष्पत्ति मानते हैं-यथा-स्थायीभाव, वासना या संस्कार रूपमें अभिभावकमें विद्यमान होते ही हैं, जो विभावादिके साधारणीरण द्वारा उद्भूत होकर उसे तन्मय बनाते हैं और वह, उस रसानंदका अनुभव करता है।
अतः निष्कर्ष रूपमें हम यह कह सकते हैं कि, जिस प्रकार किसी विषयको आलेखित करनेवाली, चित्र-विचित्र रेखायें विभिन्न रंगोंकी सप्रमाण सजावट युक्त चित्रांकनसे निष्पन्न किसी सुंदर चित्राकृति दर्शकको विशिष्टानंदानुभूति करवाती है, उसी प्रकार स्थायी भावको पूर्णतया आस्वादन करनेके लिए उसे उबुद्ध करने हेतु सर्वांग साधारणीकरण प्राप्त विशेष प्रकारके एवं यथावश्यक विभावों और अनुभावोंके संयोग होने चाहिए। " श्री आत्मानंजीम.सा. के पद्योंका रसास्वादन--श्रीआत्मानंदजी म.सा. प्रथम भक्त थे, बादमें कवि, अतः
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