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प्राकृतके भी तत्सम-तद्भव शब्दोंका प्रभूत मात्रामें प्रयोग भी झलकता है ।
उपरोक्त निमित्त-कारणोंसे उनकी भाषामें विविध भाषाके शब्द प्रयोगोंका प्राप्त होना अस्वाभाविक तो नही है, प्रत्युत इन प्रयोगोंसे भावाभिव्यक्तिको अधिक सबल बनाने में सहयोग ही मिला है । जैसे श्री ऋषभदेवजी भगवंतके माढ़ रागमें रचित स्तवनमें-जो राजस्थानियोंका प्रिय राग है और जिससे वैराग्य-वासित आत्माकी प्रभु-प्रीति और प्राप्तिकी तड़प आदि भावोमें विशिष्ट निखार आता है-आपने भी राजस्थानी शब्द प्रयोगका विशिष्ट उपयोग करके उस स्तवन-काव्यमें अत्यधिक मार्मिक अनुभूतिकी अभिव्यक्ति की है-यथा
"मनरी बातां दाखाजी, म्हारा राज हो, रिखबजी थाने.... मन मर्कटकुं शिखो निज घर आवेजी, म्हारा राज रे कांइ ।
सघली बाते, समता रंग रंगावेजी म्हारा राज हो रिखबजी थाने...."आ. वि.स्त.-पृ-८६ इस तरह हम देखते हैं कि गुरुदेवके काव्य विशेषतः ब्रज भाषामें लिखे जाने पर भी उनमें हिन्दी खड़ी बोली, राजस्थानी, गुजराती, मालवी, पंजाबी, उर्दू आदि भाषाओंके उपयुक्त सम्मिश्रण
और संस्कृतादिके तत्सम तद्भव शब्दों के प्रयोगसे काव्यमें ताज़गी-स्फूर्ति-चूस्तता और चारुता एवं काव्यचातुर्य-निष्पन्नता आती है, जो काव्यको हृदयस्पर्शी प्रभावकतासे भर देती है । किसी वस्त्रके फटने पर एक अबुध उस पर पैबंद लगाता है, जो वस्त्रको असुंदर बना देता है, जबकि उसी वस्त्रको अन्य विचक्षण व्यक्ति अपनी विलक्षण सुझबुझसे इस कदर पैबंद लगाता है कि, वस्त्रमें एक नयी परिकल्पना उभर आती है। जो शायद उस वस्त्रको अधिक सुंदरता बक्षती है । ठीक वैसे ही कविराजश्रीने भी विविध शब्द प्रयोगों के पैबंद ऐसे लगाये हैं जो नूतन परिकल्पनाके साथ काव्यमें चमत्कृत उद्भावनाओंको प्रत्यक्ष करवाते हैं । अब हम इनके काव्यमें प्रयुक्त विभिन्न प्रायोगिक शाब्दिक इन्द्रधनुषी-आभा-सौंदर्यके दर्शन करें । पंजाबी शब्द :- पंजाबी होनेके नाते पंजाबी भाषाके शब्दप्रयोग अधिक मात्रामें मिलते हैं. अव्ययके रूपमें --- सेंती(समेत), इतरां(अन्य), कदे(कभी), नेडे(नज़दिक), ऐन(ऐसे), ओडक(आखिर), जौलों.... तौलों(जबतक....तबतक), नाल(साथमें), रीते(खाली), काको(क्यूं), परले(पीछे के), सरवंग आदि;सर्वनामके रूपमें- तिनसे(उनसे), तिनमें (उनमें), मैनुं(मुझे), तोनु(तुझे), आपना(आपका) आदि; जातिवाचक संज्ञा . हाटक(सुवर्ण) पूत (बेटा), सथान(स्थान), मुनिवरिंद(मुनिवृंद) आदि; भाववाचक संज्ञा --- चंगा, चंगेरा, नीके(सुंदर), टरा(अकड़ता), प्रणाम(परिणाम) आदि; क्रियावाचक --- जप्पो(जल्पना-बोलना), चइये(चाहिए), दसे (कहें), कीते(किया), गेरे (डाल दें), भामरी, कूफर धोहे, मन टोहे, गुमर आदि; वर्णविपर्यय --- प्रणाम(परिणाम), सथान(स्थान), वरिंद(बूंद), पर्तक्ष(प्रत्यक्ष) आदि; खाद्यपदार्थके नाम --- साटा, दोठा, मठड़ी, सबुनी, कलाकंद, कलीदाना, गुज्जा, बिदाना, पेठा आदि । . उर्दू शब्द - यारा(दोस्ती), यार(मित्र), नूर(चमक) आदि गुजराती शब्द :- मुज भणी(मेरी ओर), माटी तणो घट(मिट्टीका घट), छाजे(सोहे), मांडीये (प्रारंभ कीजिए), केटला(कितना), जीवना(जीवके), बेसुं(बैठे), आगल(सामने), करशुं(करेंगें), शु(क्या), वधे(बढ़े), जोया(देखा), (में), टाणा(अबसर), करथी(हाथसे), रुल्यो (भटका), राजी(प्रसन्न) आदि । मराठी शब्द :- यद्यपि सुरीश्वरजी का विचरण महाराष्ट्रमें नहीं हुआ फिरभी. क्वचित् मराठी शब्दप्रयोग भी आपने किये हैं-यथा-झाली (हुई), ठेवली (रखी), ठंपना आदि । राजस्थानी शब्द :- दूजो (दूसरा), छै (है), धेगा (जल्दी), छारना (निकम्मा बनाना), मोने-माने-मोहको (मुझे), घनेरी (बहुत), थाने (आपको), दाखां (कहना), बेर करना (देर करना), मो मन (मेरा मन), लार (साथ), भींचके (बंद करके), तो कुं (तेरे पास), मनरी (मनकी), थे (आप), झीले (स्नान करें), खेरुकरे, शिरथी, गर्दभी (खेतीके साधन), धरंपना आदि ।
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