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________________ सवैया इकतीसा--यह 'सवैया' छंदका उपविभागीय छंद है । जो दंडक प्रकारका छंद है । इसमें इकत्तीस वर्ण होते हैं । यतिप्रायः ८,८,८,७पर निश्चित होती है । अंतमें गुरु वर्ण होता है । आचार्यश्रीजीने इसका उपयोग विशेषतः अपनी उपदेशात्मक रचनाओं में किया हैं-यथा-- "डर नर पाप करी, देत गुरु शिख खरी, मान लो ए हित धरी, जनम विहातु है । जोबन न नित रहे, बाग गुल जाल महे, आतम आनंद चहे, रामा गीत गातु है । बके परनिंदा जेति, तके पर रामा तेति, थके पुन्य सेती फेर, मूढ मुसकातु है । अरे नर बोरे! तोकुं, कहुं रे सचेत हो रे, पिंजरे कुं तोरे देख, पंखी उड जातु है।" उ.बा.-३६ इस श्लोक ८, ८, ८, और ७ पर यति है। लेकिन कहीं कहीं पर अनियमितता भी दर्शित होती है “काची काया मायाके भरोसे भमियो तुं बहु, नाना दुःख पाया काया जात तोह छोरके” (उ.बा.२५) तथा-“ठोर ठोर ठानत विवाद पखपात मूढ, जानत न मूर चूर सत मत बात की "-उ. बा.३५ उपरोक्त पंक्तियाँ श्लोकके प्रथम चरणकी हैं उनमें १६और१५ अक्षरों पर यति आती है । लेकिन इन श्लोकोंके शेष चरणोंमें ८, ८, ८. और ७ पर ही यति रखी जाती हैं । ऐसे ही दोनों प्रकारके 'सवैया इकतीसा' 'ध्यान स्वरूप में भी पाया जाता है-यथा(१) “ईस सब कर्म पीस, मेरु नगरा जईस, ऐसे भयो थिर धीस, फेर नहीं कंपना । कदेही न परे ऐसो, परम शुकल भेद, 'छेद सब क्रिया' ऐही, नाम याको जंपना । प्रथम शुकल एक, योग तथा तीनहीमें, एक जोग माहे दूजा, भेद लेइ ठंपना । काय जोग तीजो भेद, चौथ भयो जोग छेद, आतम उमेद मोन महिल धरंपना ।"ध्या.स्व.पृ.१८१ (२) “एकही दरव परमानु आदि चित धरी, उतपात व्यय ध्रुव स्थिति भंग करे है ।"-ध्या.स्व. सारांश रूपमें हम यह कह सकते हैं कि श्री आत्मानंदजीम.सा.ने बहुत कम छंदोको प्रयुक्त किये हैं, क्योंकि, हृदयके अंतरंग भावोंकी मुक्त रूपसे अभिव्यक्ति करने में उन्होंने छंदके बंधनोंकी अपेक्षा विविध राग- रागिणियोंकी बंदिशोंको और लोकगीतादिकी चालोंको अधिक पसंद करके उनका विशेषतया उपयोग किया है। फिर भी जितने छंदोका प्रयोग किया गया हैं वह काव्य-भावानुरूप उपयुक्त है । उन छंदोके आयोजनमें कविका साफल्य झलक रहा है । शब्द चयनः--आचार्यदेव श्री आत्मानंदजीम.सा., श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकालीन थे । यह वह समय था जब हिन्दी साहित्यका गद्य बाल-शिशुकी चाल चल रहा था और पद्य रचनाओमें तो शुद्ध हिन्दी भाषा प्रयोगकी बनिस्बत ब्रज भाषाके प्रयोगकी ही प्रमुखता स्पष्ट झलकती थी । जिनके नामसे उस युगका प्रवर्तन हुआ, उस युगपुरुषने भी स्वयं की पद्य रचनाके लिए ब्रज भाषाके व्यवहारकी परिपाटीको ही बहुलतया अपनाया हैं ।उस परिवर्तनशील युगकी हिन्दी भाषा शनैः शनैः समस्त भारतमें अपने पैर जमाकर राष्ट्र-भाषाकी मानिंद उच्च एवं उत्तम, विशाल एवं समृद्ध स्थिति प्राप्तिके भरसक प्रयत्नमें निरन्तर उद्यमशील थी । अतः ऐसे समयमें उसमें अन्य भाषा-भाषी प्रान्तोंकी शाब्दिक झलककी उपलब्धि सहज स्वीकार्य है । दूसरा, चिरन्तन प्रकाशकी आशासे जीवनोत्थान और अमरत्वकी प्राप्तिकी ओर प्रेरित करके बंधनसे मुक्ति मार्गको संकेतिक करनेवाले कविराज श्री आत्मानंदजीम.सा. जैन साध्वाचार-नव-कल्पी विहार-के निःशंक दृढ पालक थे । अतएव उनका जीवन भ्रमणशील था, जिससे निरंतर विभिन्न क्षेत्रोमें-पंजाबसे लेकर गुजरात पर्यंतके प्रमुख ग्रामनगरों में विचरण करते करते अनेक जन एवं जैन-समाजोंसे परिचयमें आते रहें यही कारण हैं कि उनकी वाणीमें उन भाषाओंका-गुजराती, राजस्थानी, मालवी, खडीबोली आदिका सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है । स्वयं पंजाबी भाषी होनेसे पंजाबी और उर्दू भाषाके शब्दोंकी तो भरमार छलकती है। चूंकि उस समय तक धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत या प्राकृतमें लिखे जाते थे और सुरीश्वरजी भी इन भाषाओं पर प्रकांड प्रभुत्वधारी थे हीः अतः अधिकतर जनजीवनमें व्यवहृत लोकबोधगम्य संस्कृत (80) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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