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________________ 'सवैया इकतीसा'-छंदका प्रयोग किया है । और भक्ति-भाव-प्रवण रचनाओमें-विशेष करके 'पूजा काव्यो में जैन परम्परानुसार छंद योजना की है ।सामान्यतः 'पूजा काव्यो'में प्रत्येक पूजाके प्रारम्भमें 'दोहा'छंद प्रयुक्त होता है जिसके माध्यमसे विवक्षित पूजामें विवरित विषयका संक्षेपमें परिचय करवाया जाता है । तत्पश्वात् प्रायः विभिन्न छंदोमें, लोकगीतों-ढालों-देशीओंमें विषयका विस्तृत निरूपण होता है और अंतमें 'काव्य'रूपमें विविध छंदोके माध्यमसे 'संस्कृत भाषामें उस विवरित विषयकी फलश्रुति एक श्लोकमें की जाती है । इन 'पूजा काव्यों की-जैन परंपरासे समभिज्ञ गुरुराजने इसका परिपूर्ण रूपमें निर्वाह किया है। इनके पूजा काव्योमें भी प्रारम्भिक परिचयके लिए 'दोहा'छंदका प्रयोग और 'काव्य' रूपमें वसंततिलका, द्रुतविलम्बित आदि वर्णिक छंदोके उपयोग किये गये हैं । जबकि ढालोंमें विविध राग-रागिणियोंका कुशलतापूर्वक उपयोग किया गया है क्योंकि पूजा-काव्य' समूहगानके रूपमें जनसमाज द्वारा भक्तिके उत्कट भावोंके साथ वाद्योंके सहयोगसे, लयलीन बनकर गाये जाते हैं । इन 'पूजा काव्यों की रचना हिन्दी भाषामें सर्व प्रथम बार रचनेका श्रेय श्री आत्मानंजीम.सा.को प्राप्त होता है । इनके पद्य साहित्यमें हार्दिक भावसौंदर्य, नाद-ताल और लययुक्त विविध रागोंके सांचेमें ढलकर प्रस्तुत हुआ है । साथ ही साथ छंद योजना भी प्रत्येक पूजामें परंपरानुसार प्राप्त होती है ।-यथादोहा-मात्रिक अर्धसम छन्द 'दोहा', अति लोकप्रिय और प्रचलित छंद है, जिसके 'विषमचरण में तेरह मात्रा और प्रारम्भमें 'जगण'का निषेध एवं 'समचरण में ग्यारह मात्रायें और अंत्याक्षरका लघु होना अनिवार्य होता है। कुल मात्रायें ४८ होती हैं और यति पादांते होती हैं । अब, श्री आत्मानंदजीम.सा.का पूजाकाव्योमें इसका प्रयोग दर्शित है "जिनवर वाणी भारती, दारति तिमिर अज्ञान; सारति कविजन कामना, वारति विघन निदान ।"-अष्ट प्रकारी पूजा 'मंगलाचरण' "जिनवर भाषित तत्त्वमें, रुचि लक्षण चित धार; सम्यग दर्शन प्रणमिए, भवदुःखभंजनहार ।" न.पू.-६ “शोभित जिनवर मस्तके, रयण मुकुट झलकंत; भाल-तिलक अंगद-भुजा, कुंडल अति चमकंत ।" स.भ.पू.१० “आगम अनुसारी क्रिया, जिनशासन आधार; प्रवर-ज्ञान-दर्शन लहे, शिवरमणी भरतार ।"-बी.स्था.पू.१३ इनके अतिरिक्त 'ध्यान-स्वरूप', द्वादश-भावना-स्वरूप, उपदेश बावनी' आदि काव्य-कवनोमें भी यत्रतत्र दोहा'छंदके प्रयोग मिलते हैं-यथा-"पावन भावना मनवसी, सबदुःख मेटनहार; __ श्रवण सुनत सुख होत है, भवजल तारणहार ॥"-द्वा.भा.स्व.-मंगलाचरण “प्रथम निरोधे मनशुद्धि,वच तन पीछे जान; तन वच मन रोधे तथा, बच तन मन इकठान ॥"-'ध्यान स्वरूप-1 “करता हरता आतमा, धरता निर्मल ज्ञान । वरता भरता मोक्षको, करता अमृत पान ।"-'उपदेश-बावनी'-अंतिम मंगल । वसंततिलका-बंदिश-(तभजजगग)-सम वर्णिक साधारण वृत्तवाले इस छंदमें प्रत्येक पादके चौदह वर्णमें तगण, भगण, जगण, जगण,गुरु,गुरु,कायोग और आठवें वर्ण पर विराम होता है । कुल चार पादमें छप्पन वर्ण समाविष्ट होते हैं । “सन्नालिकेरपनसामलबीज पूर, जंबीरपूग सहकार मुखैः फलैस्तैः । स्वर्गाधनल्पफलदं प्रमदाप्रमोदं, देवाधिदेवमशुभप्रशमंमहामि ।" अ.प्र.पू.-८ दुतविलम्बित-बंदिश (नभभर)-समवर्णिक साधारण वृत्तवाले इस छंदमें प्रत्येक पादके बारह वर्णमें नगण, भगण, भगण, रगण का योग होता है-यथा “अखिलवस्तुविकासनभास्कर, मदनमोहतमस्सुविनाशकम् । नवपदावलिनामसुभक्तितः, शुधिमनाः प्रयजामि विशुद्धये ।"-श्री न.पू.१ (79) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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