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________________ जं तेण पुव्वजम्मे सुचिरं परिपालिअं सुचारितं । तं तस्स वि तारुण्णे विसयावरत्तत्तणं जायं ।। 132 ।। अर्थ: जो पूर्वजन्म में बहुत समय तक उत्तमचारित्र धर्म का पालन करता है, वह उसके ( स्वयं के ) युवावस्था को प्राप्त होने पर भी विषय - सुखों से विरक्तपने को प्राप्त होता है । अण्णदिणम्मि मुणीसरगुणिज्जमाणं सुयं सुणतस्स । कुमरस्स तस्स विमलं जाईसरणं समुप्पण्णं ।। 133 ।। अर्थ : किसी अन्य दिन मुनीश्वर के शास्त्र के प्रवचनों को गुनते हुए एवं सुनते हुए उस कुमार को निर्मल जाति - स्मरण उत्पन्न हो गया । जाईसरणगुणेणं संसारासारयं मुणंतस्स । खवगस्सेणिगयस्स वि सुक्कज्झाणं पवन्नस्स।। 134। अर्थ : जाति - स्मरण के गुण से संसार की असारता को जानता हुआ क्षपक श्रेणी के (मोक्षाभिमुखता की आठवीं अवस्था) शुक्लध्यान को प्राप्त करके झाणानलेण कम्मिंधणनिवहं दुस्सहं दहंतस्स । केवलणाणमणंतं समुज्जलं तस्स संजायं ।। 135 ।। अर्थ : ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन के समूह को बड़ी कठिनाई से जलाते हुए उस कूर्मापुत्र को अनन्त एवं अत्यंत उज्ज्वल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । जइ ताव चरित्तमहं गहेमि ता मज्झ मायतायाणं । मरणं हविज्ज णूणं सुअसोगविओगदुहिआणं ।। 136 ।। अर्थ : तब यदि मैं चारित्र धर्म (मुनिधर्म) को ग्रहण करता हूँ तो पुत्र के वियोग के शोक में दुःखित मेरे माता-पिता की निश्चय ही मृत्यु हो जायेगी । 28 Jain Education International सिरिकुम्मापुत्तचरिअं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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