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________________ बावत्तरि कलाओ सयमेव अहिज्जए सबुद्धीए। अज्झावओ य णवरं संपत्तो तत्थ सक्खित्तं ।। 127 || अर्थ : (वह कूर्मापुत्र) तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा स्वयं ही बहत्तर कलाओं का अभ्यास करता है और वहाँ अध्यापक मात्र का साक्षी हो गया (बन गया)। किं तु - पुव्वभवंतरकयचेडबंधणुच्छालणाइकम्मवसा। सो वामणओ जाओ दुहत्थदेहप्पमाणधरो।। 128 ।। वह कैसा (था)अर्थ : पूर्वजन्म में सेवकों तथा मित्रों (आदि) को उछालने के किए गए कर्मों के कारण कूर्मापुत्र दो हाथ के बराबर शरीर धारण करने वाला, बौना (जिसके हाथ-पैर छोटे तथा छाती और पेट उन्नत हो या ठिंगना) हो गया। निरुवमरूवगुणेणं तरुणीजणमाणसाणि मोहिंतो। सोहग्गभग्गजुत्तो कमेण सो जुव्वणं पत्तो।। 129 ।। अर्थ : अनुपम रूप और गुणों से तरुणियों तथा मनुष्यों के (मन को) आकर्षित (मोहित) करता हुआ सौभाग्य एवं भाग्य से युक्त वह कूर्मापुत्र क्रमशः युवावस्था को प्राप्त हुआ। तारुण्णे सव्वेसिं विसयविगारा बहुप्पगारा वि । सो पुण विसयविरत्तो कुम्मापुत्तो मुणियतत्तो।। 13011 अर्थ : युवावस्था में सभी व्यक्तियों में अनेक प्रकार के विषय-विकार (उत्पन्न होते हैं), फिर भी तत्त्वों को जानने वाला वह कूर्मापुत्र विषयों से (संसार से) विरक्त (हो गया)। हरिहरबंभाइसुरा विसएहि वसीकया य सव्वे वि। धन्नो कुम्मापुत्तो विसया वि वसीकया जेण।। 131 ।। अर्थ : विष्णु, शंकर, ब्रह्मादि सभी देवता विषय-सुखों के द्वारा वश में किए गए हैं। (किंतु) जिसने विषय-सुखों को भी वश में कर लिया है, (ऐसा) कूर्मापुत्र धन्य है। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं 300 38888 * 388 127 :02430683685 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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