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अर्थ : (राजा-रानी को वह ज्ञानी) आशीर्वाद प्रदान करता है। राजा के
द्वारा मान-सम्मान दिए जाने पर भद्र (अच्छे) आसन पर बैठकर (वे ज्ञानी) अपने-अपने धर्म को प्रकट करते हैं।
इअरेसि दसणीण य धम्मं हिंसाइसंजुयं सुणिउं।
जिणधम्मरया देवी अईव खेयं समावन्ना।। 113 || अर्थ : दूसरे दर्शनों के हिंसा आदि से युक्त धर्म को सुनकर जिनधर्म
में रत (तल्लीन) वह कूर्मादेवी अत्यधिक खेद को प्राप्त करती है।
यतः ददातु दानं विदधातु मौनं वेदादिकं चापि विदांकरोतु।। देवादिकं ध्यायतु नित्यमेव न चेद् दया निष्फलमे व सर्वम् ।।1141
क्योंकि - अर्थ : दान दो, मौन धारण करो, वेद आदि ग्रन्थों को आत्मसात् (श्रद्धान्)
कर ज्ञानार्जन करो, और भी देव आदि का नित्य ही ध्यान करो, (किंतु) दया नहीं (होने से) ये सब निष्फल/व्यर्थ ही हैं।
न सा दीक्षा न सा भिक्षा, न तद्दानं न तत्तपः ।
न तद् ध्यानं न तन्मौनं, दया यत्र न विद्यते।। 115 ।। अर्थ : जहाँ दया नहीं है, (वहाँ) न दीक्षा है, न भिक्षा है, न दान है, न
तप है, न ध्यान है (और) न मौन है।
तो नरवइणाऽऽहूया जिणसासणसूरिणो महागुणिणो।
जिणसमयतत्तसारं धम्मसरूवं परूवेन्ति ।। 116 || अर्थ : तब राजा द्वारा बुलाए गए महान् गुणवान जिन-शासन (धर्म) के
आचार्य जिनदर्शन के तत्त्व के सार (तथा) धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं
तथाहि - छज्जीवनिकायाणं परिपालणमेव विज्जए धम्मो। जेणं महव्वएसुं पढमं पाणाइवायवयं ।। 117 ||
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सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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