________________
जैसे
अर्थ : षड्जीवनिकाय (छह प्रकार के जीवों) के परिपालन से ही धर्म होता है, क्योंकि महाव्रतों में प्रथम प्राणातिपात विरति (अहिंसा व्रत) है ।
उक्तं च दशवैकालिके
" तत्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसिअं ।
अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूएस संजमो" ।। 118 ।। और दशवैकालिक में कहा है।
अर्थ : सर्वज्ञ भगवान् महावीर द्वारा दृष्ट उपदेशों में (महाव्रतों में) सभी जीवों में संयम रूप अहिंसा का प्रथम स्थान है ।
-
उपदेशमालायाम्
“छज्जीवनिकायदयाविवज्जिओ नेव दिक्खिओ न गिही । जइधम्माओ चुक्को चुक्कइ गिहिदाणधम्माओ" ।। 119 ।। उपदेशमाला में (कहा है)
—
-
अर्थ : षड्जीवनिकाय पर (छह प्रकार के जीवों पर) दया नहीं करने वाला न दीक्षित मुनि है (और) न ही श्रावक है । यतिधर्म (मुनिधर्म) से भ्रष्ट (वह) श्रावक के दान धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है।
Jain Education International
इअ मुणिवरवयणाइं सुणिउं घणगज्जिओवमाणाणि । देवीए मणमोरो परमसमुल्लासमावन्नो ।। 120 ।।
अर्थ : मेघ की गर्जना के परिमाण वाले इस प्रकार के मुनि के श्रेष्ठ वचनों को सुनकर देवी (कूर्मारानी) का मनरूपी मोर अत्यन्त उल्लास से सम्पन्न / युक्त हो गया ।
पडिपुण्णेसु दिणेसुं तत्तो
संपुण्णदोहला देवी । पुत्तरयणं पसूया सुहलग्गे वासरम्मि सुहे ।। 121 ।। अर्थ : तब दिन के समय के) पूर्ण होने पर (तथा) दोहद पूर्ण होने पर शुभलग्न (मुहूर्त, और) शुभ दिन में देवी ने (एक) पुत्ररत्न को जन्म
दिया ।
सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
For Private & Personal Use Only
25
www.jainelibrary.org