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________________ भरतेश्वर की भूमिका करते समय आषाढभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। (१४०-१४५) भगवन् जगदुत्तमतीर्थङ्कर का उपदेश महाविदेहक्षेत्र के समृद्ध रत्नसंचया नाम की नगरी में महातेजस्वी देवादित्य चक्रवर्ती अपनी ६४ हजार कामिनियों के साथ सुख से राज्योपभोग भोगता था। एक समय विहार करते-करते भगवन् जगदुत्तम तीर्थंकर वहाँ उद्यान में पधारे। देवों ने समवसरण की रचना की। देवादित्य उनके दर्शन के लिए सपरिवार आया। भगवन् को विधिपूर्वक वन्दना करके वह समवसरणसभा में योग्य स्थान पर बैठा। तीर्थंकर प्रभु भव्य जीवों को आत्म-कल्याण का उपदेश देने लगे।-'मानवजन्म दुर्लभ है। सब इन्द्रियों से परिपूर्ण होकर आर्यक्षेत्र में जन्म मिलना कठिन है। जैनाचार्य का आत्मकल्याण विषयक धर्मोपदेश श्रवण करना, उस पर श्रद्धा रखना और तदनुसार व्रताचार से जीवन व्यतीत करना उससे भी कठिन है। जो इस तरह मुनि-चरित्र अंगिकार कर आत्मकल्याण करते हैं वे मोक्षगामी भव्यजन धन्य हैं।' यह आत्महित परक हितोपदेश सुनकर किसी ने सम्यक्त्व धारण किया, किसी ने मुनिधर्म स्वीकारा तथा किसी ने श्रावकधर्म अंगिकार किया। (१४६-१६४) कमला, भ्रमर, द्रौण और द्रुमा के जीवों को केवलज्ञान-प्राप्ति कमला, भ्रमर, द्रौण और द्रुमा के जीव जो महाशुक्रस्वर्ग में देव हो गये थे, वे आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर भारतवर्ष में वैताढ्य पर्वत पर विद्याधर हो गये। उन्होंने चारण मुनि के पास मुनिदीक्षा ली। एक समय वे चारों चारणमुनि भगवन् जगदुत्तमप्रभु को वंदन कर समवसरण में बैठे। देवादित्य चक्रवर्ती द्वारा पूछने पर भगवन् ने कहा कि भारत में चक्रवर्ती नहीं हैं, लेकिन कूर्मापुत्र गृहस्थावस्था में केवलि बन गया है। माता-पिता को बोध कराने के लिए वह घर में ही रहा है। उन चारों चारणमुनियों ने भगवन् को पूछा कि उन्हें कब केवलज्ञान प्राप्त होगा? तब भगवन् ने कहा कि जब कूर्मापुत्र उनको महाशुक्रस्वर्ग की बात कहेगा तब वे केवलि बनेंगी शीघ्र ही वे चारों चारणमुनि कूर्मापुत्र के पास आयो कूर्मापुत्र से महाशुक्रस्वर्ग की पूर्वजन्म की बात सुनकर उन्हें जाति-स्मरण हुआ। वे क्षपकश्रेणि पर चढ़ गये और कर्मक्षय करके केवलि बने। फिर वे आकर भगवन् जगदुत्तम के समवसरण में बैठे। उन्हें कूर्मापुत्र से केवलज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए उन्होंने भगवन् को वन्दन नहीं किया। भगवन् ने कहा कि कूर्मापुत्र सातवें दिन में तीसरे प्रहर में मुनिदीक्षा लेगा। फिर भगवन् हितोपदेश करने के लिए पृथ्वी पर इधर-उधर विहार करने लगे। (१६५-१८८) Jain Education International vi For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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