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________________ माता-पिता के साथ वह महाशुक्रस्वर्ग के मंदिरविमान में देव हो गया। उन तीनों जीवों के द्वारा चारित्र्यपालन का यह फल था । यक्षिणी भी मर कर वैशाली के राजा भ्रमर की रूपगुणशीलसंपन्न कमलावती नाम की रानी हो गयी। राजा और रानी ने जिनधर्म को स्वीकार किया। अंत में शुभध्यानपूर्वक मरकर वे दोनों ही वहाँ महाशुक्रस्वर्ग में देव हो गये। ( ६२-६६ ) कूर्मापुत्र का जीवन महाप्रतापी महेन्द्रसिंह राजा धनधान्य से समृद्ध और सुप्रसिद्ध राजगृह में न्याय पूर्वक राज्य करता था। उसकी रूपगुणशील सम्पन्न कूर्मा नाम की रानी थी। सुख से राज्योपभोग भोगते किसी दिन रानी ने स्वप्न में एक भव्य देवप्रासाद देखा । तब राजा ने स्वप्न का फल कहा कि रानी विश्व का नेत्र ऐसे गुणशील युक्त पुत्र को जन्म देगी। दुर्लभकुमार का जीव, जो महाशुक्रस्वर्ग में देव था, वह उसके उदर में अवतरित हुआ। इस गर्भधारण से रानी तेजस्वी दिखने लगी । ( ६७-१०८ ) कूर्मारानी को धर्मश्रवण करने का दोहद हो गया। राजा द्वारा निमन्त्रित किए षड्दर्शन पारंगत विद्वान् आचार्यों ने अपना-अपना हिंसायुक्त धर्म कहा । लेकिन जिनधर्मरत रानी को वह धर्मोपदेश अच्छा नहीं लगा। तब राजा के निमन्त्रण से जैनाचार्य ने छः प्रकार के जीवों पर दया दिखाने वाला अहिंसा धर्म कहा । वह सुनकर रानी अत्यन्त हर्षित हो गई। योग्य समय में शुभलग्न तथा शुभ दिन में उसे रूपगुणसंपन्न पुत्र हो गया। बड़े ऐश्वर्य से जन्मोत्सव मनाया। धर्मश्रवण करने का दोहद होने से पुत्र का 'धर्मदेव' नाम रखा। लेकिन उसका बोलचाल का कूर्मापुत्र यह नाम ही रूढ़ हो गया। उसे पाँच धाय आदि सब का प्यार था। उसने अपनी चाणाक्ष बुद्धि से अल्प समय में ७२ कलाएँ आत्मसात कर लीं। लेकिन पूर्वजन्म में सेवक आदि को ऊपर फेंकने के अशुभ कर्म से वह सिर्फ दो हाथ प्रमाण का हो गया। (१०६-१२८) जवानी में सब उन्मत्त होते हैं, लेकिन पूर्वजन्म में पालन किये चारित्र के प्रभाव से उसका मन सांसारिक सुखोपभोगों से विरक्त बना। एक समय मुनिवर्यों का उपदेश सुनकर उसे जातिस्मरण हो गया। वह क्षपकश्रेणि पर चढ़ने लगा। सब कर्म - बन्धनों का क्षय होते ही कूर्मापुत्र को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। लेकिन अपने विरह से मेरे माता-पिता मर जाएँगे, इस विचार से उनको बोध कराने के लिए वह संसारावस्था में ही रहा। धन्य है वह मातृपितृभक्त कूर्मापुत्र ! ( १२१-१३६) द्रव्यपूजा और भावपूजा में भावपूजा शुद्धभाव के कारण श्रेष्ठ है, इसलिए आरसे महल में भरत चक्रवर्ती को, बांबू के ऊपर चढ़े हुए इलापुत्र को और नाटक में Jain Education International vi For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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