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________________ कुमार को देखकर पुत्रप्रेम से उसके माता-पिता रोने लगे । 'द्रौणराजा और द्रुमारानी ने पुत्रवियोग के दुःख से कैसी दीक्षा ली थी? यह बात केवलिमुनि ने उसे बताया। माता-पिता के दर्शन से दुर्लभकुमार आनन्दित होकर और उनको कंठालिंगन देकर रोने लगा| यक्षिणी ने आंचल से उसके आँसू पोंछ कर उसको सान्त्वन किया । सच ही मोह का प्रभाव विचित्र है । ( ६४-७१ ) रत्नव्यापारी का दृष्टान्त योग्य समय देखकर केवलिमुनि धर्मोपदेश करने लगे। महत्प्रयास से प्राप्त किया हुआ चिंतामणि प्रमाद से खो देने वाले रत्न व्यापारी की तरह हम दुर्लभ मानवजन्म प्राप्त करके धर्माचरण में प्रमाद कर इसे व्यर्थ खो न देवें । एक नगर में एक कलाकुशल रत्नपारखी व्यापारी रहता था। सब रत्नों में श्रेष्ठ चिंतामणि प्राप्त करने की लालसा से उसने अनेक प्रयत्न किये, जगह-जगह खान खोदे। उसके सब प्रयत्न व्यर्थ हो गए। एक समय एक गृहस्थ के कहने से वह जहाज में बैठकर रत्नद्वीप में गया। वहाँ इक्कीस अनशन से उसने आशापूरीदेवी की आराधना की । देवी प्रसन्न हो गयी। उसने वर के रूप में चिंतामणि की माँग की । देव भी अपने-अपने कर्मों के अनुसार कुछ देते हैं। इसलिए देवी ने कहा कि चिंतामणि प्राप्त करने लायक उसका अच्छा कर्म नहीं। यदि उसका अच्छा कर्म था तो वह रत्नद्वीप में आकर देवी की क्यों आराधना करता? 'फिर जो होना है होने दो' ऐसे कह कर उसने आग्रह से चिंतामणि देने की याचना की। देवी ने उसे चिंतामणि दिया । आनन्दित होकर वह जहाज में बैठा और वापस जाने लगा । जब जहाज सागर के बीच में आया, तब पूर्व दिशा में पूर्णिमा का चन्द्रोदय हुआ। चन्द्रमा का या चिन्तामणि का तेज (प्रकाश) ज्यादा है, यह देखने के लिए उसने चिंतामणि करतल में लिया और एक बार चिन्तामणि को और फिर एक बार चन्द्रमा की ओर बार-बार देखने लगा। लेकिन उसके प्रमाद से वह चिंतामणि करतल से अथाह सागर में गिर गया। उसने जहाज रोका और खूब खोज की, लेकिन कुछ भी उपयोग नहीं हुआ। महत्प्रयास से प्राप्त किए चिंतामणि की तरह दुर्लभ मानव-जन्म प्राप्त कर वह प्रमाद से व्यर्थ गवा देने वाला मूर्ख है। लेकिन मानव जन्म में जिनधर्म को स्वीकार कर तदनुसार आचरण करने वाला धन्य है। उसका ही जन्म सफल होता है । ( ७२ -६१ ) महाशुक्रस्वर्ग में देव केवलिमुनि का यह धर्मोपदेश सुनकर यक्षिणी ने सम्यक्त्व धारण किया । दुर्लभकुमार मुनि हो गया। उसने १४ पूर्वों का अध्ययन किया। उग्र तपश्चरण करके Jain Education International V For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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