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एक समय वहाँ के दुर्गिलउद्यान में सुलोचन नाम के केवलिमुनि पधारे। वहाँ बहुशालवटवृक्ष के नीचे पाताल में अपने सुवर्णमय भव्य प्रासाद में भद्रमुखी नाम की यक्षिणी रहती थी। वह पूर्वजन्म में मानवती नाम की सुवेलवेलंधरदेव की प्राणप्रिया थी । केवलिमुनि के पास आकर उसने उनको वन्दन किया और अपने पूर्वजन्म के पति के बारे में पूछा। वहाँ के द्रौणराजा का पुत्र दुर्लभकुमार ही अपना पूर्वजन्म का पति है, यह केवलमुनि से जानकर वह हर्षित हो गई। मानवती का रूप लेकर वह कुमार के पास आई। उसने सेवक आदि को ऊपर फेंकने की क्षुद्रक्रीड़ा के बारे में कुमार को डांटा, अन्य सुन्दर बातों के लिए उसे आकर्षित किया और अपने पीछे आने को कहा। कौतूहलवश वह भी उसके पीछे दौड़ा और पाताल में उसके स्वर्णमय प्रासाद में आया। 'यह इन्द्रजाल है या स्वप्न है?" इस विचार से वह विस्मित होकर देखने लगा। उसके मन की शंका दूर करने के लिए उसने कहा कि कितने वर्षों के बाद उसने उसे देखा है । दृष्टिभेट की मनीषा पूर्ण होने से उसे अत्यानंद हुआ और वह उसे वहाँ लेकर आई। भद्रमुखी के प्रेमपूर्ण शब्द सुनते-सुनते तथा मोहक नेत्रों से देखते-देखते उसे जातिस्मरण हो गया। उसने ही कुमार के शरीर से अशुभ पुद्गल निकाल कर वहाँ शुभ पुद्गल डाले। वे दोनों वहाँ सुख से कालक्रमणा करने लगे। ( १४-३६)
पुत्रवियोग से दुःखी हुए उसके माता-पिता ने दुर्लभकुमार की बहुत खोज की, लेकिन उसका पता नहीं लगा। देवों द्वारा अपहृत की गई वस्तु कभी मानवों को मिल सकेगी क्या? उन्होंने सुलोचन केवलिमुनि को पुत्र के बारे में पूछा। केवलिमुनि ने कहा कि भद्रमुखी यक्षिणी पूर्वजन्म के प्रेम से दुर्लभकुमार को पाताल में ले गई और कुमार भी प्रेमातुर होकर उस दिव्य प्रासाद में उसके साथ वैषयिक सुख भोगते हुए रहने लगा
है।
। जब वे विहार करते-करते फिर वहाँ आयेंगे तब कुमार की भेंट हो जाएगी - ऐसे भी कहा। यह सुनकर कुमार के माता-पिता को वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने छोटे पर बैठाकर वलिमुनि के चरणों में दीक्षा ली। मुनि और आर्यिका का कठोर आचरण करते वे दोनों केवलिमुनि के साथ विहार करते-करते फिर एक बार वहाँ के दुर्गिलउद्यान में ही आये । ( ३७-४८ )
पुत्र
अवधिज्ञान से ‘कुमार अल्पायुषी है' यह जानकर भद्रमुखी केवलि के पास आई और उन्हें वन्दन करके पूछने लगी- कुमार की आयु बढ़ेगी या नहीं? उन्होंने वस्तु का स्वरूप समझाया और बताया कि कोई भी प्रतापी बलदेव, वासुदेव, देव तथा तीर्थंकर आदि भी आयुष्य के टूटे हुए टुकड़े जोड़ नहीं सकते। तब कुमार का वियोग हो जाएगा, इस कल्पना से ही वह यक्षिणी दुःखी हो गई । कुमार ने आग्रह पूर्वक उससे उदासी का कारण पूछा। उसने कुमार के अल्पायुष्य के बारे में कहा। शेष आयुष्य में आत्मकल्याण करना चाहिए, कुमार की यह इच्छा जानकर यक्षिणी कुमार को केवलि के पास ले आयी। (४६-६३)
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