________________
कूर्मापुत्र की दीक्षा, उपदेश और मोक्ष-प्राप्ति
तदनंतर योग्य समय में महासत्त्वशील कूर्मापुत्र ने मुनिदीक्षा ली। देवनिर्मित कमलासन पर बैठकर उसने स्वानुभव से उपदेश किया कि जैसे दानों में अभयदान, ज्ञानों में केवलज्ञान, ध्यानों में शुक्लध्यान वैसे ही दान, तप, शील और भाव इन चतुर्विध धर्मों में भाव (चित्तशुद्धि) श्रेष्ठ है। यह सुनकर उसके माता-पिता महेन्द्रराजा और कूर्मारानी ने उसके पास भगवती दीक्षा ग्रहण की। अच्छी तरह से चारित्र्य पालन करके उन्होंने सद्गति प्राप्त की। अन्य भव्यजनों ने भी अपनी शक्ति अनुसार सम्यक्त्व, मुनिधर्म तथा श्रावकधर्म को अंगिकार किया। इसी तरह अनेक भव्यों को बोध कर और दीर्घकाल तक केवलि-पर्याय का पालन कर कूर्मापुत्र ने मोक्षप्राप्ति की।
'कुम्मापुत्तचरिअं' का मूलाधार 'कुम्मापुत्तचरिअं' एक पौराणिक कथा है। यह कथा प्राचीनकाल से दन्तकथा के रूप में प्रचलित थी। जैन आगमग्रंथों में इस कथा का उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन टीकाग्रन्थों में मिलता है। विशेषावश्यकभाष्य (गाथा ३१७० और ३१७१) और औपपातिकसूत्रटीका (पृ. ११४) में इस कथा का संक्षिप्त उल्लेख मिलता है।
धर्मघोष के 'ऋषिमण्डल' में प्राचीन मुनियों की कथाएँ एक-दो श्लोकों में अतिसंक्षेप में कहीं हैं। 'ऋषिमण्डल' के क्रमांक १२५वें श्लोक में कूर्मापुत्र का इस प्रकार उल्लेख आया है
दोरयणिपमाणतणू जघण्णओगाहणाइ जो सिद्धो। तमह तिगुत्तिगुत्तं कुम्मापुत्तं नमसामि।। . (ऋषिमण्डल-१२५)
'जो दो हाथ प्रमाण शरीर का है, जिसका अति छोटा देह है, तो भी त्रिगुप्तियों का पालन करके जो सिद्ध हो गया, उस कूर्मापुत्र को मैं वन्दन करता हूँ।'
ऋषिमण्डल की विविध टीकाओं में शुभवर्धन, हर्षनन्दन आदि ने विस्तार से कूर्मापुत्र का चरित्र दिया है। शेष टीका-ग्रंथों में यह कथा सुप्रसिद्ध होने से कहने की आवश्यकता नहीं, इसलिए विस्तार नहीं किया गया।
__धर्मघोष के ऋषिमण्डल पर शुभवर्धन की संस्कृत टीका के दूसरे खण्ड में यह कूर्मापुत्र की कथा ८२ संस्कृत श्लोकों में दी है।
अनंतहंस ने शुभवर्धन का संस्कत कथाकाव्य सामने रखकर प्राकत में 'कुम्मापुत्तचरिअं' की रचना की होगी। संस्कृत कथा के समान सिर्फ निर्देश न देकर कवि ने प्राकृत में कुछ प्रसंगों का संक्षेप में, लेकिन काव्यमय वर्णन किया और यह कथा आकर्षक और वाचनीय की है।
VIII For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org