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________________ इसे प्रतियों का अभाव स्वीकार कर प्रबुद्धजन उससे अवगत कराने का कष्ट करेंगे। इस सम्पादन में प्रतिलिपियों में प्रयुक्त शब्दों के विभक्ति रूपों, धातु रूपों आदि को व्याकरण के अन्यान्य नियमों के अनुरूप शुद्ध किया है, जिसे पाद-- टिप्पणी के रूप में प्रत्येक पृष्ठ के नीचे अंकित कर दिया है। कहीं-कहीं पर दोनों ही प्रतियों के पाठ को शुद्ध करके अर्थानुसार प्रयोग किया गया है तथा प्रतिलिपियों के पाठ को पाद-टिप्पण में सुरक्षित रखा है। यथा-चरणम्मि। प्रतिलिपियों में प्रयुक्त शब्द चरणंम्मि तथा चरणंमी है। कई जगह ऐसा संशोधन हमने किया है, जो अर्थ को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करता है। छन्द-पूर्ति की दृष्टि से भी मात्राओं को यथासंभव शुद्ध करके मूल में रखा है। किसी स्थान पर अनुवाद की दृष्टि से स्वर-व्यंजन परिवर्तन भी करना पड़ा है। इस प्रकार आराधना प्रकरण के सम्पादन एवं अध्ययन में इन्हीं प्रविधियों को अपनाते हुए यह कृति तैयार की गई है। इस कृति में मूलपाठ के साथ अन्वय एवं हिन्दी अनुवाद देते हुए प्रारम्भ में आराधना प्रकरण के विविध पक्षों पर समीक्षात्मक सामग्री दी गई है। जिसमें प्रति-परिचय, आराधना प्रकरणपरिचय एवं प्रतिपाद्य विषय, प्रकरण का अध्ययन, आराधना का अर्थ, स्वरूप, भेद आदि काव्यशास्त्रीय मीमांसा (छन्द, अलंकार, वैशिष्टय तथा भाषा) आदि समाविष्ट हैं। अन्त में परिशिष्ट दिया गया है। परिशिष्ट 'क' में ग्रन्थ में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दों की पारिभाषिक शब्दावली एवं दूसरे 'ख' में गाथानुक्रमणिका दी गई है। अन्त में पाण्डुलिपि के सम्पादन-कार्य में सहयोगी ग्रन्थों की सूची "सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची" के रूप में दी गई है। __प्राच्य विद्याओं के अध्ययन-अध्यापन और मूल ग्रन्थों के सम्पादन में अनेक तरह की कठिनाइयाँ आती हैं, जिससे सम्पादन-कार्य में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में त्रुटि अथवा कमी रह जाती है। लेकिन सभी का सहयोग इस कमी और त्रुटि को दूर करने में सहायक बन जाता है। 'आराधना प्रकरण' नामक इस कृति के सम्पादन में भी यह बात महसूस की गई। इसके लिए जिन-जिन का सहयोग प्राप्त हुआ उन सबको हम स्मरण करें, उससे पहले समस्त आचार्यों और उनकी कृतियों के प्रति नतमस्तक होकर हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। उनके ग्रन्थों के सूत्रार्थ का अध्ययन करके ही कृति का सम्पादन किया जा सका है। आराधना प्रकरण नामक कृति का प्रतिपाद्य आचरणीय है। इसे अपने जीवन में हम उतार सकें, इसके लिए गुरुओं का आशीर्वाद एवं दिशाबोध आवश्यक है। इसी क्रम में गणाधिपति आचार्य तुलसी को नमोऽस्तु करते हुए पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी. यवाचार्यश्री महाश्रमणजी एवं साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी के चरणों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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