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________________ प्राक्कथन व्यवहारजगत् में संग्रहीत, शास्त्र से उद्भासित एवं पूर्व जन्मान्तरीय संस्कार विशेष से उत्प्रेरित सर्वग्रहणसमर्थ प्रज्ञा जब स्फूर्त होती है और शाब्दिक आकार प्राप्त कर संसार में अभिव्यक्त होती है, तो उसे लोकव्यापार एवं शास्त्रीय भाषा में काव्य कहते हैं तथा उसके धारक जीव को कवि कहते हैं । साहित्य जगत् में प्राकृत साहित्य का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैनाचार्यों ने भारतीय साहित्य को समृद्ध एवं अद्वितीय ख्यातिलब्ध बनाने में भरपूर एवं अनवरत सहयोग दिया है । आगमों से लेकर व्याख्या साहित्य तक प्राकृत साहित्य की धारा निर्बाध रूप से प्रवाहमान रही है, और आज भी अनेक रूपों में बह रही है । प्राकृत साहित्य में अनेक विधाएं प्रचलित हैं और उनमें आराधना विषयक विधा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । प्राकृत साहित्य में तीर्थंकरों, महापुरुषों और आचायों आदि की स्तुतियाँ परम्परानुसार प्राप्त होती हैं । आगम साहित्य में भी यह परम्परा दृष्टिगोचर होती है। भक्ति, सेवा, समर्पण, पूजा, गुणोत्कीर्तन जैसी क्रियाओं में आराधना समाविष्ट होती है। आचार्यों ने भक्तिवशात् व अपने इष्ट के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए अनेक प्रकार से स्तुतियाँ, स्तोत्र, आराधना विषयक ग्रन्थ आदि सृजन किया है। और इसी क्रम में श्री सोमसूरि ने अपने इष्ट के प्रति समर्पण भाव व्यक्त करने एवं आत्मकल्याण के साथ-साथ जन-कल्याण के लिए आराधना प्रकरण नामक लघु ग्रन्थ की रचना की है । आराधना प्रकरण नामक पाण्डुलिपि की दो प्रतियाँ ही जैन विश्वभारती संस्थान के ग्रन्थागार में उपलब्ध हुईं, जो क्रमशः 1566 तथा 1591 क्रमांक पर संग्रहीत हैं। इन प्रतियों को ढूँढ़कर निकालने में परमपूज्य मुनिश्री सुमेरमल जी एवं श्री प्रमोद कुमार जी लाटा ने महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। इस प्रकरण ग्रंथ में 70 गाथाएँ हैं । अ- प्रति में कुल सत्रह पृष्ठ तथा नौ पन्ने हैं प्रत्येक पृष्ठ पर चार पंक्तियाँ टीका सहित दी हैं और इसके लिपिकार पं. श्री लाभविजय जी हैं । ब - प्रति में प्रत्येक पृष्ठ पर पंक्तियों की संख्या एक जैसी नहीं है। कुछ पृष्ठों पर पाँच पंक्ति तथा कुछ पृष्ठों पर छः पंक्तियाँ रचित हैं। इस प्रति के लिपिकार प्रेमविजयगणि हैं । यद्यपि दो प्रतियाँ होने से पाठ - सम्पादन में तो काफी सहयोग मिला है, लेकिन इसकी यदि एक-दो प्रतियाँ और उपलब्ध होती तो सम्पादन कार्य और भी अधिक प्रभावोत्पादक हो सकता था । इसके पाठ सम्पादन यद्यपि पूरी तरह से सचेतता बरती गयी है, फिर भी यदि कोई त्रुटि रह गई हो तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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