SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधना प्रकरण की है-- काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयताप्रयोजका अलंकाराः। (रसगंगाधर) उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष दृष्टिगत होता है कि अलंकार काव्य में विद्यमान रहता है और कभी नहीं भी। यह तो केवल शोभावृद्धि करता है, सौंदर्य की सृष्टि नहीं। अभिप्राय यह है कि सत्काव्य में अलंकार की स्वतंत्र सत्ता अमान्य है। आराधना प्रकरण में कृतिकार के द्वारा अनायास ही अलंकारों का प्रयोग हो गया है। सहज रूप में प्रयुक्त इन अलंकारों से ऐसा प्रतीत होता है मानों कवि ने जानबूझकर अलंकारों का प्रयोग नहीं किया होगा, अपितु ग्रंथ के काव्यशास्त्रीय शैली में निरूपण से अलंकारों का सहज ही प्रयोग हो गया। इस प्रकरण ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय आराधना परक एवं आचार सम्मत होने से भी अलंकार के सहज प्रयोग की बात सिद्ध होती है। कवि श्री सोमसूरि विरचित इस ग्रंथ में काव्यलिंग, लाटानुप्रास, पर्याय, परिकर, रूपक, उपमा, विशेषोक्ति, विभावना आदि अनेक अलंकारों का बड़ा ही सहज एवं सुन्दर प्रयोग हुआ है। यहाँ उनके लक्षण, उदाहरण सहित दिये जा रहे हैं - काव्यलिंग ___ जब वाक्यार्थ या पदार्थ में किसी कथन का कारण हो तो काव्यलिंग अलंकार होता है। काव्यलिंग में दो शब्द हैं- काव्य और लिंग। जिनका अर्थ है- काव्य का कारण अर्थात् ऐसा कारण जिसका वर्णन काव्य में किया गया। आ. अम्मट ने काव्यलिंग का लक्षण देते हुए कहा - काव्यलिंगं हेतोर्वाक्यपदार्थता ॥ (काव्यप्रकाश, 10/114) पं. विश्वनाथ ने भी काव्यलिंग को इन शब्दों में परिभाषित किया है - हेतोर्वाक्यपदार्थत्त्वे काव्यलिंगं निगद्यते॥ (सा.द. 10/81) आराधना प्रकरण ग्रंथ की प्रथम गाथा ही काव्यलिंग अलंकार का सुन्दर एवं सटीक उदाहरण है। नमिऊण भणइ, भयवं समउचिअं समाइससु। तत्तो वागरइ गुरू , पजंताराहणा एअं॥ (गाथा-1) प्रस्तुत गाथा में जब शिष्य गुरु से शास्त्रसम्मत उपदेश देने की प्रार्थना करता है तो गुरु अपने शिष्य को इस सम्पूर्ण आराधना परक ग्रंथ में शास्त्रसम्मत उपदेश देते हैं। यहाँ काव्य रचना का कारण शिष्य की प्रार्थना है। इस गाथा के अतिरिक्त और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy