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आराधना प्रकरण भी कई गाथाओं में इस अलंकार का प्रयोग हुआ है। पर्याय अलंकार -
जब एक वस्तु की क्रमशः एक स्थान में स्वतः अवस्थिति हो तो वहाँ पर्याय अलंकार होता है। पर्याय का अर्थ कम या अनुक्रम है। पर्याय अलंकार के उद्भावक आचार्य रुद्रट हैं। कालान्तर में इसका निरूपण परवर्ती रचनाकारों ने भी किया है। पं. विश्वनाथ ने अपनी कृति साहित्य दर्पण में पर्याय अलंकार का लक्षण इस प्रकार किया है -
क्वचिदेकमनेकस्मिन्ननेक चैकग क्रमात्।
भवति कियते वा चेत्तदा पर्याय इष्यते॥ (सा.द., 10/104)
इसका सटीक उदाहरण प्रकरण ग्रंथ की बयालीसवीं गाथा है, जो यहाँ निर्दिष्ट है
जे चत्तसयलसंगा, समतिणमणि सत्तुमित्तणो धीरा। साहंति मुक्ख मग्गं, ते मुणिणो हुन्तु मे सरणं॥ (गाथा, 42)
प्रस्तुत गाथा में आधेय कल्याणकारक मुनि है, जिसके आधार अनेक हैं जैसे- यह परिग्रह का त्यागी है, तृण व मणि, शत्रु तथा मित्र और सुख तथा दुःख में सम रहता है। अत: यहाँ पर्याय अलंकार है। परिकर अलंकार -
जब साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग से वर्णनीय पदार्थ के परिपोषण किए जाने का वर्णन हो तो परिकर अलंकार होता है। परिकर का अभिप्राय है- उपकरण, उत्कर्षक, या शोभा कारक पदार्थ । इस अलंकार के उद्भावक रुद्रट् हैं । द्रव्य, गुण, क्रिया तथा जाति के आधार पर इस अलंकार के चार प्रकारों का वर्णन इस श्लोक के माध्यम से करते हैं -
साभिप्रायैः सम्यग्विशेषणैर्वस्तु यद्विशिष्येत। द्रव्यादिभेदभिन्न चतुर्विधः परिकरः स इति॥ (काव्यालंकार, 7/72)
इस अलंकार की अनिन्द्य छटा आराधना प्रकरण की इस गाथा से देख सकते हैं, जिसमें धर्म को अनेक विशेषणों से युक्त बताया गया है। इसी कारण परिकर अलंकार है -
कल्लाण कोडिजणणा, जत्थ अणत्थप्पबंध निद्दलणी। वणिजइ जीवदया, सो धम्मो होतु मम सरणं॥ (गाथा, 44)
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