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आराधना प्रकरण साहित्य की मनोरंजकता, आह्लादकता एवं भावाभिव्यक्तिसामर्थ्य की संवृद्धि होती है। कहा भी है- चन्दति आह्लादं करोति दीव्यते वा श्राव्यतया इति छन्द। हलायुधकोश (पृ. 307) पर कहा गया है -
चन्दयति आह्लादयति, चन्द्यतेऽनेन वा॥ अर्थात् 'चदि-आह्लादने' धातु से "चन्देरादेश्य छः" इस औणादिक सूत्र से असुन् प्रत्यय और चकार के स्थान पर छकार करने पर छन्द शब्द की निष्पत्ति होती है। जो आह्लाद करे, अर्थात् श्रव्य के माध्यम से चित्त को विकसित करे वह छन्द है।
प्रस्तुत ग्रन्थ आराधना प्रकरण स्तुति परक काव्य है। जिसमें अपने इष्ट के प्रति, इष्ट के विभिन्न सामर्यों के नाम रूपों का संगायन स्तोत्र या स्तुति पद वाच्य है। प्रभु, ईश्वर, गुरु या पूज्य में विद्यमान गुणों का गायन स्तोत्र है, और स्तोत्र अधिकांश छंदोमय ही देखे जाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण ग्रन्थ में मुख्य रूप से गाथा छन्द का प्रयोग किया गया है। गाथा छन्द
इसे संस्कृत में आर्या छन्द कहते हैं । मात्रिक छन्दों में आर्या सर्वाधिक प्राचीन है। आर्या छन्द का लक्षण इस प्रकार कहा गया है -
यस्याः पादे प्रथमं द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि।
अष्टादशः द्वितीये चतुर्थके पंचदश सार्या ॥ अर्थात् जिसमें प्रथम एवं तृतीय चरण में बारह मात्राएँ, दूसरे चरण में अठारह तथा चौथे चरण में पन्द्रह मात्राएँ होती है। इसी के समान पिंगलकृत प्राकृत-पैंगल में गाथा का लक्षण किया है -
पढमं बारह मत्ता बीए अटठारहेहिं संजुत्ता।
जह पढमं तह तीयं दहपंच विहूसिया गाहा ॥ (प्रा. पै. 54, पृ. 52)
सम्पूर्ण आराधना प्रकरण गाथा छन्द में लिखा गया है । यद्यपि कहीं-कहीं पद (चरण) स्खलन दिखाई देता है, तो कहीं मात्राओं की त्रुटि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि रचनाकार अपने इष्ट की आराधना करने में इतने तल्लीन हो गये कि छन्द के स्खलन का ध्यान ही नहीं रहा होगा।
__ अलंकार भारतीय काव्यशास्त्र में अलंकारों का विशेष महत्त्व है। आचार्य दण्डि, आनन्द, मम्मट, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य में अलंकारों
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