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________________ आराधना प्रकरण की पालना करना जीवन की सार्थकता के लिये अनिवार्य है। चारों आराधनाओं को यदि और संक्षेप में कहना चाहें तो चारित्र की आराधना ही प्रमुख है। अर्थात् चारित्र की आराधना से दर्शन, ज्ञान और तप स्वाभाविक रूप से पालित हो जाते हैं। जबकि दर्शन, ज्ञान अथवा तप की आराधना से चारित्र पालित होना भजनीय कहा गया है। क्योंकि दर्शन, ज्ञान और तप होने के बावजूद चारित्र हो यह जरूरी नहीं है। ऐसा इसलिए कहा गया है, क्योंकि असंयमपूर्ण चारित्र का पालन करने वाले व्यक्ति में भी दर्शन, ज्ञान अथवा तप की प्राप्ति देखी जा सकती है। लेकिन चारित्र की प्राप्ति (संयमपूर्ण चारित्र या यथाख्यात चारित्र) होने पर शेष तीनों ज्ञान, दर्शन, तप पालित हो जाते हैं। सुख आदि की प्राप्ति के लिए जीवन में यह अनिवार्य है। श्रुत आराधना का फल बताते हुए कहा गया है कि चारित्राराधना से दर्शन, ज्ञान और तप की आराधना स्वतः ही पालित हो जाती है। - आराधना के फल के सन्दर्भ में जिनशासन में लेश्याओं का विशेष महत्त्व है। मानव मन में उठने वाले विचारों को ही लेश्या कहा गया है। जिसका सम्बन्ध भावनाओं के साथ स्वीकार किया जाता है। लेश्याएँ प्रशस्त और अप्रशस्त इन दो रूपों में विभक्त की गई हैं। प्रशस्त लेश्याएँ वे हैं, जो मनुष्य के निर्वाण प्राप्ति में सहायक बनती हैं। जबकि अप्रशस्त लेश्याएँ संसार बढ़ाने में समर्थ होती हैं । निर्वाण की प्राप्ति के लिए विशुद्ध शुक्ल लेश्या ही निमित्त है। अप्रशस्त लेश्याएँ कृष्ण, नील और कापोत हैं। जबकि प्रशस्त लेश्याएँ तेजस्, पद्म और शुक्ल हैं। विशुद्ध लेश्याओं को उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूप में पाला जाता है। जिनका फल पृथक्-पृथक् निर्धारित किया गया है। यदि शुक्ल लेश्या उत्कृष्ट रूप में पाली जाये तो जीव उसी भव से मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। जबकि मध्यम स्तर से शुक्ल लेश्या का धारक सात भव पर्यन्त मुक्ति को प्राप्त करता है, और जघन्य रूप में आराधना करने वाला आराधक संख्यात्-असंख्यात् भव को प्राप्त करता है। ये तीनों स्तर सम्यक्त्व आराधक को ध्यान में रखकर किये गये हैं अर्थात् सम्यक्त्व की आराधना को पालने वाला वह है, यदि उसकी लेश्याएँ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूप में पालित हैं, तभी वह उक्त भवों के पर्यन्त मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। जिनशासन में आराधना के अनेक रूप मिलते हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का पालन कर व्यक्ति भक्तिपूर्वक पूजन, अर्चन अथवा गुणोत्कीर्तन आदि के द्वारा आराधना करता है। आराधना प्रकरण में विशेष रूप से सम्यक्त्व की आराधना को प्रदर्शित किया गया है। प्राचीन जैनागम में आराधना यत्र-तत्र परिभाषित हुई है। चतुर्विध आराधना को आचार अथवा दार्शनिक सिद्धांतों के माध्यम से विवेचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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