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________________ आराधना प्रकरण आराधना का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्तकाल से भी जुड़ता है। यदि व्यक्ति ने यावत् जीवन द्रव्य और भाव रूप में आराधना का पालन किया है, किन्तु अन्तकाल में उसके परिणाम विकृत हो जाते हैं तो उसकी आराधना निष्फल हो जाती है। इसलिये न केवल शेष जीवन की बल्कि शेष जीवन सहित अन्तकाल तक की गई आराधना ही फलदायी हो सकती है। अत: आराधक को गुरु के सम्मुख दोषों का आलोचना पूर्ण प्रायश्चित करते हुये संयम का पालन करना चाहिए। मरणसमाधि प्रकीर्णक' में आराधक के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुये कहा गया है कि जो गुरु के पास सकल भावशल्य को छोड़कर शल्यों से रहित होकर मृत्यु को प्राप्त करता है वह आराधक होता है, किन्तु जो गुरु के पास भावशल्य को बिल्कुल नहीं छोड़ता, वह न तो समृद्धिशाली होता है, और न ही आराधक होता है। चारों कषायों का त्याग, इन्द्रियों का दमन एवं गौरव को नष्ट करके राग-द्वेष से रहित होकर आराधक अपनी आराधना की शुद्धि करता है। इसलिये आराधना को सम्पूर्ण जीवन काल में पालने का निर्देश किया गया है। भगवती आराधना में दृष्टांत पूर्वक यह समझाया गया है कि जिस प्रकार राजपुत्र प्रारम्भकाल से ही शस्त्र विद्या का अभ्यास करते रहने के कारण युद्धभूमि में शत्रु को परास्त करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार आराधक भी शेष जीवन काल में आराधना का अभ्यास कर मृत्यु के समय सम्यक् रूप से आराधना का पालन करता है। भगवती आराधना में इसका निरूपण निम्न गाथाओं में किया गया है - जह रायकुलपसूओ जोग्गं णिच्चमवि कुणइ परियम्म। तो जिदकरणो जुद्धे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ॥ (भ. आ. 20 पृ. 41) इयसामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपरियम्म। तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो भविस्सहदि॥ (भ. अ. 21 पृ. 42) चतुर्विध आराधनाओं के प्रसंग में यह कहा जाता है कि संक्षेप में दर्शन और चारित्र की आराधनाएँ ही जीवन में उपयोगी है। इसका तात्पर्य यह है कि दर्शन की आराधना से ज्ञान की आराधना पालित होती ही है, जबकि ज्ञान की आराधना से दर्शन की आराधना पालित होती भी है और नही भी। क्योंकि पदार्थ को जानकर ही उस पर श्रद्धान् करना आधारित होता है। जबकि श्रद्धान् होने का मतलब है ज्ञान पूर्व में ही प्राप्त किया जा चुका है। दूसरी चारित्र की आराधना से तप की आराधना आराधित हो ही जाती है। जबकि तप की आराधना से चारित्र पालित हो यह जरूरी नहीं। यहाँ चारित्र शब्द संयमपूर्ण चरित्र का द्योतक है। इस प्रकार इन दो आराधनाओं 1. मरण समाधि प्रकीर्णक- गाथा 225-26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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