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करता है, वह निश्चित ही धन-सम्पत्ति, ख्याति-पूजा आदि महावैभव को प्राप्त करके उत्तम स्वर्ग सुख को और कालान्तर में मोक्ष को प्राप्त करता है । जिण-वंदण-सीलस्स, णिच्चं वुड्डोवसे विणो । चत्तारि तस्स वड्ढते, आऊ-विजा-बलं जसो ||५||
अन्वयार्थ- (जिण-वंदण-सीलस्स) जिनेन्द्र-वन्दना के स्वभाव वाले के (णिच्चं) हमेशा (वुड्डोवसेविणो) वृद्धजनों की सेवा करने वाले (तस्स) उसके (आऊ-विजा-बलं जसो) आयु, विद्या, बल [और यश [ये] (चत्तारि) चार (वड्ढते) बढ़ते हैं।
भावार्थ- वीतरागी जिनेन्द्र भगवान के दर्शन-पूजन में जो निरन्तर लीन रहते हैं तथा जो ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, तपवृद्ध तथा वयोवृद्ध जनों की हमेशा यथायोग्य-यथाशक्य सेवा करते हैं; उनकी आयु, विद्या, बल और यश ये चार वृद्धि को प्राप्त होते रहते
सयलव्वद-मज्झम्मि, अहिंसा जणणी भणे । खणि-सव्वगुणाणं च, भूमी धम्मतरुस्स हि ॥६|
_ अन्वयार्थ- (सयलव्वद-मज्झम्मि) सभी व्रतों में (हि) वस्तुत: (अहिंसा जणणी) अहिंसा व्रत माता के समान (सव्वगुणाणं) सभी गुणों की (खणि) खान (च) और (धम्मतरुस्स) धर्मरूपी वृक्ष की (भूमी) भूमि (भणे) कहा गया है ।
भावार्थ- सभी श्रेष्ठ व्रतों में अहिंसा व्रत को ही वस्तुत: सभी व्रतों को उत्पन्न करने में माता के समान, समस्त गुणों की खान और धर्मरूपी वृक्ष की भूमि कहा गया है । अहिंसा व्रत के बिना अन्य व्रतों का, तपों का निश्चयत: कुछ भी महत्त्व नहीं है । अत: अहिंसा व्रत की परिपालना पर विशेष जोर देना विवेकीजनों का कर्तव्य है ।
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