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आऊ-बलं सुरूवं च, सोहग्गं कि त्ति-पूयणं । अहिंसा-वद-माहप्पा, सग्गं मोक्खं च जायदे ॥७॥ ___ अन्वयार्थ- (अहिंसा-वद-माहप्पा) अहिंसा व्रत के माहात्म्य से (आऊ-बलं सुरूवं) आयु, बल, सुन्दर-रूप (सोहग्गं कित्तिपूयणं) सौभाग्य, कीर्ति, पूजा, (सग्गं) स्वर्ग (च) और (मोक्खं) मोक्ष (जायदे) [प्राप्त होता है ।
भावार्थ- सभी व्रतों की जड़स्वरूप अहिंसा व्रत के सम्यक् परिपालन से मनुष्य आयु, बल, सुन्दर रूप, सौभाग्यशीलता, ख्याति, पूजा-सम्मान तथा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुखों को प्राप्त करता है ।
संसारे माणुसं सारं, कुलत्तं चावि माणुसे । कुलत्ते धम्मिकत्तं च, धम्मिकत्ते य सद्दया ||८|| - अन्वयार्थ- (संसारे माणुसं) संसार में मनुष्यता (माणुसे) मनुष्यत्व में (कुलत्त) कुलीनत्त्व (कुलत्ते) कुलीनत्त्व में (धम्मिकत्तं) धार्मिकत्त्व (च) और (धम्मिकत्ते) धार्मिकता में (चावि) भी (सद्दया) सच्ची दया (सारं) सारभूत है।
भावार्थ- इस अनन्त संसार में चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि ही सारभूत है, उसमें भी कुलीनता-आचरणशीलता सारभूत है, कुलीनता में भी धार्मिकता सारभूत है और धार्मिकता में भी सच्ची दया-करुणा सारभूत है ।
सव्वदाणं कयं तेण, सव्वे जग्गा य पूयणं । सव्व-तित्थाहिसेगं च, जो सव्वे कुणदे दया ॥९॥
अन्वयार्थ- (तेण) उसने (सव्वदाणं) सभी दान (सव्वे जग्गा य पूयणं) सभी यज्ञ और पूजन (च) तथा (सव्व-तित्थाहिसेगं) सभी तीर्थों का अभिषेक (कयं) किया (जो) जो (सव्वे) सभी पर (दया) दया (कुणदे) करता है ।
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