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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
१०. समत्वयोग और भेदविज्ञान
भेदविज्ञान का संक्षेप में स्पष्ट अर्थ है 'यह शरीर में हूँ' यह जो जन्मजयन्तरों का संस्कार है, संकल्प है, उसे तोड़ना । यह श भिन्न है, इस प्रकार की भिन्नता का अनुभव होना ही भेदविज्ञान है ।
भेद - विज्ञान का तात्पर्य बताते हुए 'प्रवचनसार' में कहा गया है णाहं देहो, ण मणो, ण चैव वाणी, ण कारणं तेसिं । कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं ॥ १६० ॥
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"मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न ही वाणी (वचन) हूँ, न इनका कारण हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ, न करानेवाला हूँ और न ही कर्ता का अनुमोदक हूँ ।"
भेदविज्ञान रूपी बीजमंत्र की भावना आचार्य श्री अमितगति सामायिक पाठ द्वारा अभिव्यक्त कर रहे हैं।
शरीरतः कर्तुमनन्तशक्तिम्, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गयष्टिम् तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ॥
"हे वीतराग प्रभो ! आपकी स्वभावसिद्ध कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी आत्मिक शक्ति प्रकट हो कि मैं अपनी आत्मा को शरीर (सभी प्रकार के) आदि से उसी प्रकार पृथक् कर सकूँ जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की जाती है, क्योंकि वस्तुतः मेरी आत्मा अनन्त शक्ति से सम्पन्न है और समस्त दोषों से रहित होने के कारण निर्दोष वीतरागस्वरूप हैं ।"
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भगवान महावीर कहते हैं- "शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं एवं मन-वाणी के साथ जो तादात्म्य सम्बन्ध बाँधा गया हैं, उसे शिथिल करना; तथा शरीर से प्रारम्भ करते हुए वचन और फिर मन के साथ जो तादात्म्य सम्बन्ध जोड़ रखा है, उससे मुक्त बनना ही भेदविज्ञान है ।"
भगवान महावीर फरमाते हैं "अगर भेदविज्ञान करना हो तो देह रहते हुए भी देहभाव से ऊपर उठना होगा। देहभाव से मुक्त होने का मतलब शरीर को
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